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Thursday, September 19

आखिर चाहती क्या है राजनीति : कब मिलेगी राजस्थानी को मान्यता

AAPNI BHASHA-AAPNI BAAT: म्हारी जबान रो तालो खोलो

संजय आचार्य वरुण

कब मिलेगी राजस्थानी को मान्यता ? ये प्रश्न अब एक ऐसा यक्ष प्रश्न बन गया है, जिसका कोई उत्तर नज़र नहीं आता। समझ में नहीं आता कि एक समृद्ध, सम्पन्न गरिमामय भाषा को संवैधानिक मान्यता नहीं मिल पाने के कारण क्या हैं ? कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि राजस्थानी भाषा अपने खुद के प्रदेश में दूसरी राजभाषा बनने के लिए तरस गई है। वर्तमान की प्रदेश सरकार ने अपने पहले के एक कार्यकाल में विधानसभा से मान्यता का एक संकल्प पत्र पारित कर, केंद्र सरकार को भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। संवैधानिक मान्यता केंद्र सरकार के हाथ में है लेकिन राजस्थानी को राजस्थान की दूसरी राजभाषा बनाना तो प्रदेश सरकार के अधिकार क्षेत्र में ही आता है। राजस्थानी भाषा को उसका हक इसलिए नहीं मिल रहा क्योंकि प्रदेश की जनता अपनी भाषा के मुद्दे पर जागरूक नहीं है। कितने अफ़सोस की बात है कि हमारी मातृभाषा की अवहेलना करने वाले नेताओं को हम ही आगे बढ़- बढ़कर वोट देते हैं, सत्ता सौंपते हैं। भारत के अन्य किसी प्रांत में वहां की भाषा की उपेक्षा करके राजनीति नहीं की जा सकती। जब तक राजस्थान की जनता मान्यता और दूसरी राजभाषा के मुद्दे पर राजनीतिक दलों का बहिष्कार नहीं करेगी तब तक राजस्थानी के मुंह पर ताला ही लगा रहेगा।

अकादमी की कुर्सी करती रहती है अध्यक्ष का इंतजार

सरकार बनती है, सब काम होते हैं लेकिन साहित्यिक अकादमियों की कुर्सियां अध्यक्षों की प्रतीक्षा ही करती रहती है। राजनीतिक दलों, नेताओं और मंत्रियों के लिए साहित्य एक ग़ैर जरूरी चीज है, इसीलिए सरकारों के कार्यकाल पूरे होने से चार- छह महीने पहले अकादमियों को अध्यक्ष दिए जाते हैं, वे कार्यभार संभालते हैं उससे पूर्व तो चुनावी आचार संहिता लागू हो जाती है। राजस्थानी भाषा के नाम पर प्रदेश की एकमात्र अकादमी बीकानेर के मुरलीधर व्यास नगर में स्थित है जो अधिकांश समय अध्यक्ष की बाट जोहती रहती है। वर्तमान सरकार अपने कार्यकाल के चतुर्थ वर्ष के पास है लेकिन अभी तक अध्यक्ष की नियुक्ति का कोई अता पता नहीं है। ये स्थिति तब है जब प्रदेश के साहित्य, कला, संस्कृति मंत्री बीकानेर से हैं और स्वयं साहित्य, संस्कृति और शिक्षा क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। राजनीति को भाषा, संस्कृति और साहित्य की उपेक्षा करना शोभा नहीं देता। साहित्यकार स्वयं इसलिए दोषी हैं कि वे हमारी भाषा और साहित्य की उपेक्षा करने वाले नेताओं, मंत्रियों को अपने साहित्यिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अतिथि आदि बनाते हैं। साहित्य समाज का निर्माता है, इसलिए राजनीति को इसे गंभीरता से लेना चाहिए और साहित्यिक अकादमियों में अध्यक्षों की नियुक्तियों को राजनीतिक नियुक्तियों के दायरे से बाहर रखना चाहिए।

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