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Saturday, November 23

हिंदुस्तानी संस्कृति के अलमबरदार उर्दू शायर : फ़िराक़ गोरखपुरी

-डॉ. असित गोस्वामी

अगर है हिन्द शनासी की आरज़ू तुझको
मेरा कलाम इसी सिम्त इक इशारा है

फ़िराक़ गोरखपुरी का यह शेर उनकी शायरी की एक बानगी पेश करता है। यह शेर इस बात की शहादत है कि उनका पूरा कलाम हिन्दुस्तान और हिंदुस्तानियत के रंग में रंगा है. हुस्न-ओ-इश्क, हिज्र-ओ-विसाल दिल-ओ-जिगर जैसे उर्दू के रिवायती मौज़ूआत तो फ़िराक़ साहब की शायरी में मिलते ही हैं, पर उनकी शायरी में भारतीय साहित्य परम्परा का श्रृंगार रस भी इफ़रात से मिलता है। उनके पूरे कलाम में और ख़ास तौर से उनके संग्रह “रूप” की रुबाइयों में सुन्दरता के विशुद्ध भारतीय रूपक बड़ी मिकदार में मौजूद हैं। जैसे –
कोमल पद-गामिनी की आहट तो सुनो
गाते क़दमों की गुनगुनाहट तो सुनो
सावन लहरा है मद में डूबा हुआ रूप
रस की बूँदों की झमझमाहट तो सुनो
या
वो पेंग है रूप में कि बिजली लहराए
वो रस आवाज़ में कि अमृत ललचाए
रफ़्तार में वो लचक पवन रस बल खाए
गेसू में वो लटक कि बादल मँडलाए
फ़िराक़ साहब का असली नाम रघुपति सहाय था। उनका जन्म 28 अगस्त 1896 को गोरखपुर में हुआ था. उनके पिता मुंशी गोरख प्रसाद ‘इबरत’ प्रसिद्ध वकील और शायर थे। उत्तर प्रदेश के कायस्थ घराने से ताल्लुक़ होने के कारण उनको बचपन से उर्दू फ़ारसी की तरबियत मिलनी शुरू हो गयी थी। आगरा विश्व विद्यालय से उच्च स्थान से अंग्रेज़ी में एमए करने के बाद आई सी एस की नौकरी न करके कोंग्रेस के अंडर सेक्रेटरी बन आनंद भवन इलाहबाद आ गए। वहां 1930 में इलाहबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के लेक्चरर नियुक्त हुए।

फ़िराक़ की शायरी में ख़ास तौर से उनकी अपेक्षाकृत कम चर्चित रही नज़्मों में तत्कालीन भारत और विश्व की राजनैतिक उथल-पुथल के ज़िक्र भी यदा कदा दिख जाते हैं।
‘सिपाह-ए-रूस अभी कितनी दूर बर्लिन से’
हिंदुस्तान की आज़ादी और बंटवारे और उसके तुरंत बाद कश्मीर को लेकर हुए भारत पाक विवाद के पस-ए-मंज़र में उनकी लम्बी नज़्म ‘हिन्द-पाक जंग’ के कुछ हिस्सों का उल्लेख इस प्रसंग में आवश्यक प्रतीत होता है –
हिन्द में, जिसमें शामिल है कश्मीर भी
जो मुसलमान हैं क्या वो बदहाल हैं ?
क्या वो ज़िल्लत में हैं, क्या वो पामाल हैं?
आपसे वो कहीं बढ़के के ख़ुशहाल हैं
मादर-ए-हिन्द के वो सभी लाल हैं
इसी नज़्म में आगे वो कहते हैं –
जो मुसलमान कश्मीर में बसते हैं
क्या वो बकरे हैं क़ुर्बानियों के लिए ?
हम उन्हें पाक के हुक्मरानों के हाथ
आप समझाइये किस तरह बेच दें?
आपके हुक्मराँ मारकर इन ग़रीबों को खा जाएंगे
पाक में इनकी भी होगी दुर्गत वही
चीन के हाथों जो अहल-ए-तिब्बत की है
मशरिकी पाक के मोमिनों की जो है
पाक में आज जो अहल-ए-हिजरत की है
जो बलूची की है पाख्तूनों की है
फ़िराक़ साहब की शायरी में, दर्द, नाउम्मीदी, बेबसी, रात, अन्धेरा, ग़म, सुकूत जैसे विषयों की बहुतायत दिखाई देती है। उनकी सबसे मशहूर ग़ज़लें हैं –
सुकूत-ए-शाम मिटाओ बहुत अन्धेरा है
सुख़न की शम’अ जलाओ बहुत अँधेरा है
या
ग़ज़ल का साज़ उठाओ बड़ी उदास है रात
नवा-ए-मीर सुनाओ बड़ी उदास है रात
और
शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
बेख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो
इन विषयों के अलावा फ़िराक़ की शायरी का प्रमुख विषय भारतीय सभ्यता, संस्कृति इतिहास और परम्परा रही है। ये विषय उर्दू शायरी में इतनी प्रमुखता से फ़िराक़ से पहले शायद ही मिलते हों। उर्दू शायरी के पारंपरिक विषय, विषय-वस्तु और बिम्ब और उपमाएं ज़्यादातर इस्लामिक हैं। परन्तु फ़िराक़ साहब ने उर्दू शायरी की सभी फॉर्म्स, फिर वो ग़ज़ल हो या नज़्म हो या रूबाई, को बरक़रार रखते हुए उनमें हिन्दू संस्कृति के विभिन्न अवयवों यथा शब्द भण्डार रूपक, बिम्ब और उपमाओं का भरपूर इस्तेमाल किया। फ़िराक़ ने एक इंटरव्यू में कहा भी था “The over-all picture of Urdu literature revealed the fact that the cultural spirit of India or the soul of India’s culture did not find its fullest expression in Urdu literature. .. Urdu literature has as yet not struck its roots deep enough to reach India’s soul” भारतीय आत्मा की जिस गहराई तक उर्दू शायरी में फ़िराक़ पहुंचे हैं शायद ही कोई और शायर पहुंचा हो। हिन्दुस्तानी संस्कृति की आत्मा तक उनकी इस रसाई की वजह थी कि घर में रामचरित मानस, वेद पुराणों आदि की चर्चा कानों में पड़ती थी। तुलसीदास और कालिदास के तो वे ज़बरदस्त प्रशंसक थे। एक शेर में वे कहते हैं-
किसी को चश्म-ए-सियह के पयाम लाए हैं
ये मेघदूत जो मंडला रहे हैं सिलसिलेवार
उर्दू शायरी में इस प्रकार की भाषा और प्रतीक उनके अलावा कहीं नहीं मिलते। कुछ और नमूने देखिये –
ग़ज़ल है या कोई देवी खडी है लट छिटकाय
ये किसने गेसू-ए-उर्दू को यूं संवारा है
उन्होंने भारतीय पौराणिक आख्यानों के चरित्रों को भी कहीं कहीं उपमान के रूप में इस्तेमाल किया है। जैसे इस शेर में नायिका के लबों को नल दमयंती की कहानी की उपमा दिया जाना-
वो नज़र नज़र की फुसूँगरी, वो सुकूत की भी सुख़नवरी
तेरी आँख जादू-ए- सामरी, तेरे लब फ़साना-ए-नल दमन
या फ़िर –
वो रातों-रात ‘सिरी कृष्ण’ को उठाए हुए
बला की क़ैद से बसदेव का निकल जाना
सभ्यताएं कैसे बनती और विकसित होती हैं इस पर फ़िराक़ साहब ने बहुत गंभीर चिन्तन किया है और हिन्दुस्तानी तहजीब के हवाले से उनकी बहुत सी रूबाइयां और शेरों का ज़िक्र किया जा सकता है। उनकी एक रूबाई देखिये –
हर साज़ से होती नहीं है धुन पैदा
होता है बड़े जतन से ये गुन पैदा
मीज़ान-ए-निशात-ओ-ग़म में सदियों तुल कर
होता है हयात में तवाज़ुन पैदा
और उनका यह मशहूर शेर –
सरज़मीन-ए-हिन्द पर अक़वाम-ए-आलम के फ़िराक़
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया
भारतीय सभ्यता और संस्कृति की यात्रा को बहुत ख़ूबसूरती से उन्होंने अपनी बहुत लम्बी नज़्म ‘हिंडोला’ में उकेरा है। इस नज़्म में फ़िराक़ ने भारत का हज़ारों साल का विशाल इतिहास समेट लिया है। इस नज़्म में वो महान भारतीय परम्परा का नक्शा खींचते हैं –
दयार-ए-हिन्द था गहवारा याद है हमदम?
बहुत ज़माना हुआ किस के किस के बचपन का
इसी ज़मीन पे खेला है राम का बचपन
इसी ज़मीन पे उन नन्हे नन्हे हाथों ने
किसी समय में धनुष-बान को सँभाला था
इसी दयार ने देखी है कृष्ण की लीला
यहीं घरोंदों में सीता सुलोचना राधा
किसी ज़माने में गुड़ियों से खेलती होंगी
और कहते हैं –
इसी ज़मीन पे घुटनों के बल चले होंगे
‘मलिक-मोहम्मद’ ओ ‘रसखान’ और ‘तुलसी-दास’
इन्हीं फ़ज़ाओं में गूँजी थी तोतली बोली
‘कबीर-दास’ ‘तुकाराम’ ‘सूर’ ओ ‘मीरा’ की
इसी हिंडोले में ‘विद्यापति’ का कंठ खुला
इसी ज़मीन के थे लाल ‘मीर’ ओ ‘ग़ालिब’ भी
ठुमक ठुमक के चले थे घरों के आँगन में
‘अनीस’ ओ ‘हाली’ ओ ‘इक़बाल’ और ‘वारिस-शाह’
यहीं की ख़ाक से उभरे थे ‘प्रेमचंद’ ओ ‘टैगोर’
यहीं से उठ्ठे थे तहज़ीब-ए-हिन्द के मेमार
इसी ज़मीन ने देखा था बाल-पन इन का
यहीं दिखाई थीं इन सब ने बाल-लीलाएँ
यहीं हर एक के बचपन ने तर्बियत पाई
यहीं हर एक के जीवन का बालकांड खुला
फ़िर आखिर में इस देश के नौजवानों को संबोधित करते उनकी हालत पर अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं। कहते है की वर्तमान व्यवस्था जिसमें बच्चों की जिस्म की ख़ुराक़ हो या दिमाग़ की ( यानी तरबियत) दोनों में ही मिलावट है। इस समाज ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया। नज़्म के अत्यंत मार्मिक आखिरी बंद में वो कहते हैं –
ज़मीन-ए-हिन्द हिण्डोला नहीं है बच्चों का
करोड़ों बच्चों का ये देस अब जनाज़ा है
हम इंक़लाब के ख़तरों से ख़ूब वाक़िफ़ हैं
कुछ और रोज़ यही रह गए जो लैल-ओ-नहार
तो मोल लेना पड़ेगा हमें ये ख़तरा भी
कि बच्चे क़ौम की सब से बड़ी अमानत हैं
इस तरह एक नए तेवर, नए मुहावरे और नई भाषा को उर्दू अदब का हिस्सा बनाने वाले अज़ीम शायर को साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्म भूषण, सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार समेत अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया। लम्बी बीमारी के बाद 3 मार्च 1982 को दिल्ली में उनका निधन हुआ।
अब तुमसे रुख़सत होता हूँ आओ संभालो साज़-ए-ग़ज़ल
नए तराने छेड़ो मेरे नग़मों को नींद आती है

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