– कुमार अजय
तीस साल से भी अधिक हुए, जब ननिहाल गुढ़ा-कालोद में मामाजी की सिलाई की दुकान पर बजते टेपरिकॉर्डर में कोई हरियाणवी रागनी सुनी थी, जिसमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस अपनी भाभी से कोई संवाद करते हैं। इस संवाद के जरिए नेताजी की संघर्ष की दास्तान को एक भावनात्मक पुट देकर रागनी प्रस्तुत की गई थी। बाद में जब भी याद आया, हरियाणा के अपने परिचितों और रिश्तेदारों से उस रागनी के बारे में पूछा पर वह बहुत स्थानीय किस्म की कोई रचना थी, जिसे मेरेे जैसी किसी व्यक्ति की स्मृतियों के अलावा कहीं खोज पाना मुश्किल ही था। तथ्य तो उसमें क्या ही रहे होंगे, लेकिन भावनाएँ तो थी हीं। रागनी में तो खैर तथ्यों की ज़रूरत भी न थी लेकिन जहाँ ज़रूरत थी, वहाँ भी सियासी राग-अनुराग और विराग में तथ्य खोते गए या व्यवस्थाओं के अनुकूल होते गए। खैर, तथ्य कितने ही दबाए जाएँ, छुपाए जाएँ या आधे-अधूरे ढंग से बताए जाएँ, नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारतीय स्वाधीनता संग्राम के ऐसे नायक हैं, जिन्हें आम भारतीय जन मानस में निर्विवाद तौर पर सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त है। ‘चरखे से आजादी’ का मखौल उड़ाने वाले वे तमाम लोग भी सुभाष के सम्मान में झुक जाते हैं, जिनकी विचारधारा सुभाष के विचारों के बिलकुल उलट है। विचार हमारे यहाँ व्यक्तित्व और उसकी लोकप्रियता के आगे यूँ भी गौण हैं और लोकप्रियता की बात करें तो सच यही है कि नेताजी की लोकप्रियता ही कहीं न कहीं उनकी दुश्मन हो गई।
असुरक्षा का यह भाव, सत्ता का और सियासत का स्थाई चरित्र है कि किन्हीं एक या दो के वर्चस्व को बनाए रखने के लिए कितने ही समकालीन उसके द्वारा निगल लिए जाते हैं। हुकूमत का यह चरित्र किसी हुक्मरान को चाहकर भी इसका अपवाद नहीं होने देता। नेताजी के बारे में सार्वजनिक होने वाला कोई भी तथ्य उस महान व्यक्ति से जुड़े रहस्यों को कहीं न कहीं और गहरा देता है। हालांकि यह नेताजी के बारे में हमारी आस्था, उत्कंठा, आशंका और संभावनाएँ ही हैं कि हम गुमनामी बाबा में अपने गुम हुए महानायक को ढूँढते हैं तो विदेश जेल में मिलने वाले थके-मांदे से व्यक्ति में भी नेताजी को देखते हैं।
रॉन्डा बर्न की मशहूर किताब ‘रहस्य’ कुछ समय तक मेरे पास थी। संभवतः किसी मित्र को मैंने यह पढ़ने के लिए दी और जैसा कि अकसर होता है, किताब लौटकर नहीं आई और मैं भूल चुका हूँ कि मैंने किसे यह किताब दी थी। अचानक किताब की याद आने पर मैंने बच्चों से कहा कि ‘रहस्य’ नाम से एक किताब है, कहीं देखी क्या? इस पर आरव ने ‘रहस्य’ शीर्षक से साम्य देखते हुए किताबों की अलमारी से पत्रकार किंशुक नाग की किताब ‘नेताजी सुभाष की रहस्यमयी कहानी’ लाकर रख दी है। किताब तथ्यों को सामने रखते हुए कई रहस्य को उजागर करती है, हालांकि इसके बाद भी ठीक-ठीक यह कहना तो संभव नहीं ही है कि नेताजी के साथ क्या वास्तव में क्या हुआ था। फिर भी इतना तो है ही कि कुछ हुआ था, जिसमें उस समय के शीर्षस्थ लोगों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी और दूसरा कोई अपराध हो न हो, सच को छिपाए रखने का दोष तो इन शीर्षस्थों के सिर है ही। व्यवस्था क्यों किसी सच को छुपाती है या उजागर करती है, यह किससे छुपा हुआ है? किताब पढ़ने के बाद कुछ चीजें ज़रूर साफ होती हैं। एक तो यह कि रिकॉर्ड के अनुसार जो विमान दुर्घटना कभी हुई ही नहीं, उसमें नेताजी के मारे जाने की खबर प्रसारित किया जाना कहीं न कहीं खुद नेताजी की रणनीति का हिस्सा था, जिसका बाद में उनके तमाम दुश्मनों या प्रतिस्पर्धी लोगों ने लाभ उठाया। यदि बोस उस दुर्घटना का शिकार हुए होते तो यह कैसे संभव था कि जिस हादसे में बोस को जलने के प्राणलेवा थर्ड डिग्री घाव हो गए, उसी दुर्घटना में उनके साथ रहे विश्वस्त साथी ले. कर्नल हबीबुर्रहमान को बिलकुल चोट नहीं आई और न ही वे जरा भी झुलसे। कर्नल हबीबुर्रहमान कैसे इस हादसे की कहानी को बताने के लिए बच गए, यही सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है, जहाँ से इस रहस्य कथा का आरंभ है। आधुनिक भारत और भारतीय राजनीति का नाम लेते ही जो दो नाम सबसे पहले उभरते हैं, उसी में से एक महान नेता ने उन्हें भारी लोकप्रियता के साथ कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के बाद अपनी रणनीति से इस्तीफा देने को मजबूर कर भारतीय राजनीति से गायब करने की कोशिश की, तो दूसरे महान नेता ने विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु की खबर के बाद उपजे हालात को लगातार मॉनीटर करते हुए यह सुनिश्चित किया कि सच और नेताजी दोनों भारतीय जनता के सामने कहीं प्रकट नहीं हो जाए। समकालीन दूसरे नेताओं की भूमिका भी, जिनमें हमारे बड़े स्वतंत्रता सेनानियों से लेकर आज तक भारतीय राजनीति को आज तक चलाते और प्रभावित करते बड़े नाम हैं, भी कोई ज्यादा अच्छी नहीं रही है, भले ही वे अपनी बेहतर स्थिति को खो देने के डर से या बेहतर स्थिति में आने के प्रलोभन से ऐसा करने को मजबूर हुए हों। नेताजी के बारे में कुछ भी सूचना रखने वाले लोगों को मुँह बंद रखने का इनाम दिया गया, या डाँट-डपटकर चुप करा दिया गया। ये चुप्पी साधने वाले लोग भी कोई सामान्य लोग नहीं थे, इनमें से अधिकतर नाम बहुत बड़े हैं और इन नामों से भी बड़ी विडंबना यह है कि हम किसी एक को खारिज कर, जिस दूसरे को खड़ा करने की कोशिश करते हैं, वे सारे ही लोग नेताजी के मामले में कमोबेश एक जैसे ही रहे हैं। नेताजी के मामले में अधिकारियों और आयोगों ही नहीं, अखबारों तक को मैनेज करने की लगातार कोशिश रही। जोरदार ही बात है कि आईएनए में नेताजी के करीबी रहे शाहनवाज खान की अध्यक्षता में बनाई कमेटी ‘सच’ के करीब से ही निकलने को तैयार नहीं हुई। कमेटी के ही सदस्य और नेताजी के भाई सुरेशचंद्र बोस का स्वतंत्र दृष्टिकोण इस बात को साबित करता है। किताब के मुताबिक, कमेटी के शेष दोनों सदस्यों ने सुरेश बोस पर ‘विमान दुर्घटना’ थ्योरी को मानने का ही दबाव बनाया। इस जांच में अपने योगदान के बाद शाहनवाज मंत्री बना दिए गए। कुछ लोग व्यवस्था के प्रति इतने संवेदनशील होते हैं कि शीघ्र ही खुद को व्यवस्था के अनुकूल कर लेते हैं। इन सबके बीच महात्मा गाँधी का नेताजी की मृत्यु की खबर पर सबसे बड़े भाई सतीश बोस को दिया गया तार भी है ही कि, अभी श्राद्ध नहीं करना। किताब पुरजोर ढंग से यह संभावना व्यक्त करती है कि विमान दुर्घटना में नेताजी के मारे जाने की खबर महज एक अफवाह थी। यह शुरू में उनके ही इशारे पर हुआ होगा लेकिन उसके बाद चीजें उनकी पकड़ से दूर होती गई। उनके हिस्से में बची बस अमानवीय यंत्रणाएँ और गुमनामी का अंधेरा। न केवल राष्ट्रीय राजनीति, अपितु अंतरराष्ट्रीय राजनीति भी इस तरह से घूमी कि सुभाष जैसा योद्धा महज एक बंदी होकर रह गया। तथाकथित विमान हादसे के बाद नेताजी साईबेरिया के उस अतिशय शीत वाले बंदी श्रमिक शिविर ‘गुलाग’ में रहे, जिसमें आमतौर पर बंदी ठंड, भूख और कठोर श्रम से मर-खप जाते थे और उनके लाशें अस्थियों की सड़क में दबा दी जाती थीं। न जाने कितने समय सुभाष ने वहां शारीरिक यंत्रणाएँ झेली होंगी लेकिन बाद संभवतः सुभाष की लोकप्रियता से देश के तत्कालीन हुक्मरानों को डराने के मकसद से जिंदा रख लेने के उद्देश्य से अन्य किसी अपेक्षाकृत आसान जेल में शिफ्ट कर दिया गया। विश्व राजनीति का यह भी जोरदार ही पहलू है कि सोवियत रूस से प्रताड़ना के लिए नेताजी को ब्रिटिश खुफिया एजेंसी का खास बताने की कोशिश की जाती है तो वही ताकतें ब्रिटेन को भी आगाह करती हैं कि आपका युद्ध अपराधी सुभाष सोवियत रूस में है। हिटलर जैसे क्रूर तानाशाह को उसके सामने बैठकर ‘मैं राजनीति में सारी ज़िंदगी से हूँ और मुझे किसी की राय की जरूरत नहीं है’ कहने वाले बेखौफ़ व्यक्तित्व को जेल में किसी दुर्बल काया वाले, बीमार और थके हुए कैदी के रूप में देखना निस्संदेह शारीरिक और मानसिक यातनाओं की उस यात्रा को व्यक्त करता है, जो नेताजी सुभाष ने इस देश की सेवा करते हुए झेली होंगी। नेताजी का पूरा जीवन एक ऐसे अदम्य साहस की कहानी है, जिसे सोचना ही हतप्रभ करता है और एक रोमांच पैदा करता है लेकिन नेताजी के ऐसे दुःखद अंत की कल्पना भी एक बड़ी त्रासदी को दर्शाती है। किताब में गुमनामी बाबा का जिक्र, उनसे मिलने वाले लोगों के अनुभव, उनके संग्रह से मिली किताबें, तसवीरें और दूसरी चीजें, गुमनामी बाबा के साइबेरिया की ठंड से जुड़े अनुभवों समेत अनेक चीजें हैं जो कहीं न कहीं गुमनामी बाबा को सुभाष होने के नजदीक ले जाती हैं, लेकिन एकाध हस्तलिपि और दाँतों के डीएनए जैसी कुछ विशेषज्ञ राय इसके उलट भी हैं। संभव है कि उन्हें सुभाष नहीं होने देने के लिए इन चीजों को मैनेज किया गया हो तो यह भी संभव है ही कि उनके सुभाष होने की पूरी अवधारणा ही कहीं से मैनेज हो रही हो हालांकि दूसरी संभावना बहुत कम लगती हैं। जस्टिस मुखर्जी के गलती से रिकॉर्ड हुए बयान का जिक्र भी किताब करती है, जो कहते हैं कि गुमनामी बाबा ही वास्तव में नेताजी थे।
नेताजी की मृत्यु के रहस्य को छोड़ उनके व्यक्तित्व को देखें तो भारतीय राजनीति में ऐसा घनघोर प्रतिभा का धनी, साहसी और दूरदर्शी कोई दूसरा व्यक्तित्व नजर नहीं आता। नेताजी के पास एक स्पष्ट रणनीति थी तो अपनी कार्ययोजना को कार्य में बदलने का अद्भुत कौशल भी था। कलकत्ता नगर निगम से लेकर आजाद हिंद फौज के नेतृत्व तक हमेशा हम इसे देखते हैं। जब ब्रिटिश भारतीय सेना जाति, समुदाय और नस्ल के भेदभाव पर आधारित थी, तब नेताजी ने आईएनए के जरिए मिलीजुली रेजीमेंट का गठन किया, जहां सबके लिए एक रसोई में खाना पकता था। यहाँ ब्रिटिश भारतीय रेजीमेंट्स के अपने-अपने संकीर्ण युद्धघोष की बजाय ‘जयहिंद’ जैसा युद्धघोष था, जो जय हिंदुस्तान का संक्षिप्त रूप था और आज भी प्रचलित है। अपने समय से आगे उन्होंने झाँसी रानी रेजीमेंट नाम से महिला बटालियन का गठन किया। यह नेताजी की उस समझ का परिचायक है, जो स्त्री को पुरुष के बराबर कंधे से कंधा मिलाकर चलने पर बल देती है। वर्गभेद को लेकर उनकी कितनी गहरी समझ थी कि वे कहते थे, एक हिंदू किसान और एक मुसलमान किसान आपस में बहुत कुछ एक हैं, बजाय इसके कि एक हिंदू जमींदार और एक हिंदू किसान के। कलकत्ता नगर निगम में मुस्लिमों का आरक्षण उनकी धर्मनिरपेक्षता का परिचायक था। देश के लिए समर्पित नेताजी दकियानूसी सोच के खिलाफ थे और अपने निजी जीवन में उन्होंने इसे चरितार्थ भी किया। नेताजी दुस्साहस का दूसरा नाम थे। हिटलर के देश में वहां की मान्यताओं के खिलाफ अपनी आस्ट्रियन पत्नी ऐमिली शेंकेल के साथ नेताजी खुल्लमखुल्ला रहते थे। यह अंतर नस्लीय विवाह जर्मनी में घोर पाप जैसा था, लेकिन उन्हें हिटलर की भी ज्यादा परवाह न की तो भारत में रहते हुए उन्होंने ऐसे समय कांग्रेस में महात्मा गाँधी के उम्मीदवार को हराकर अध्यक्ष पद पर काबिज हुए, जब महात्मा गाँधी का कांग्रेस में पूर्ण वर्चस्व था। सुभाष बाबू अदम्य साहस और अद्भुत वीरता वाले ऐसे शख्स थे, जिसने बिना किसी भय के अपनी रणनीति को धरातल पर उतारने का काम किया, देश की आजादी के लिए आईसीएस जैसी बड़ी नौकरी को छोड़ा, पहाड़ों और जंगलों की पैदल यात्राएँ कीं और अंग्रेजों को हिलाकर रख दिया। ऐसे महान व्यक्तित्व का शून्य से 50 डिग्री नीचे के वातावरण में ठिठुरते हुए अमानवीय यंत्रणाएँ झेलना हो या अपनी पहचान छुपाकर दयनीय स्थिति में रहते हुए अंत को प्राप्त करना हो या एक अधिकृत पुण्यतिथि तक के लिए तरस जाना, ऐसे महामानव, महानायक के व्यक्तित्व के प्रति एक अन्याय ही है, लेकिन सच अब इतना दूर छूट गया है कि उसे ठीक-ठीक पकड़ पाना किसी के लिए भी संभव नहीं लगता, एक पर धूल उछालने के लिए दूसरे की प्रतिमा चमकाने के समय में तो बिलकुल भी नहीं।