संजय श्रीमाली
मरूक्षेत्र में बीकानेर एक ऐसा जिला है जिसमें कोई भी जल का प्राकृतिक संसाधन नहीं है। यहां न तो नदी है, न कोई प्राकृतिक झील-झरना और ना ही सागर तट। इस क्षेत्र में केवल मानव द्वारा निर्मित जल संसाधनों में मुख्यतः कुएं, कुण्ड, बावड़ियां एवं तालाब आदि ही है। बीकानेर में जल की स्थिति हेतु यह कहावत बहुत प्रसिद्ध – जळ उंड़ा थळ उजला, नारी नवले बेस….. इस उक्ति में बीकानेर में जल के माप को बखूबी बताया है कि यहा जल स्तर बहुत नीचे है और थल पर बालू रेत का अपार समन्दर दिखाई देता है, और यहां की नारियों की वेशभुषा बहुत ही निराली है। इस क्षेत्र में जल का मोल घी से भी ज्यादा माना गया है, यहां के लोगों से सुना जाता है कि ‘‘घी ढूळे तो कांई नहीं, पाणी ढूळे तो म्हारो जी बळे’’ अर्थात घी व्यर्थ में बह जाए तो कुछ नहीं लेकिन जल व्यर्थ में नहीं बहना चाहिए। ऐसे सूखे प्रदेश में उस काल में कुएं और तालाब पानी के मुख्य स्रोत हुआ करते थे। कुएं और तालाब के पानी में धरती -आसमान का फर्क था। कुआं जहां पाताळ का सीना चीर पानी प्राप्त करना था, वहीं तालाब आस पर टीका बरसाती पानी। जब चाहा बरसा, जब चाहा नहीं बरसा, किसी का कोई जोर नहीं। तो एक धरती के गर्भ से पानी प्राप्त होना तो दूसरी ओर आसमान से पानी प्राप्त होना। बीकानेर जैसे क्षेत्र में कुएं के पानी की महत्ता बहुत थी। क्योंकि तालाब को पानी खुले क्षेत्र में रहता था, पशु एवं मानवों द्वारा गंदा भी हो सकता था। लेकिन कुएं का पानी एकदम साफ और स्वच्छ था।
बीकानेर में कुओं के कई नाम प्रचलित थे जिसमें खांडिया, खारिया, अंध, चौतिणा आदि। यह कुएं अपनी अलग विशेषताओं के नाम से प्रचलित थे। खांडिया नाम किसी घटना विशेष के कारण खण्डित होने पर पड़ा। खारिया खारे पानी के कारण, अंध कुआं पाताळ तोड़ कुएं को कहां जाता था जोकि बहुत ही गहरा होता है और चौतिणा जिसकी चार तिवण हो अर्थात चार चड़स पानी के साथ निकाला जा सके। बीकानेर के कुंओं में मुख्य रूप से तीन प्रकार का पानी हमें पीने को मिलता है जिसमें सबसे उत्तम पानी मिठा। दूसरा द्विधारी पानी जिसमें मिठा$नमकीन मिला हुआ, उसको हम स्वाद में चरचरा पानी कहते थे। यह चरचरा पानी स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही उत्तम माना जाता था। यह पानी मुख्यतः पेट संबंधी दिक्कतो तथा त्वचा संबंधी रोगों में बहुत ही उपयोगी माना जाता था। बकायदा इसी क्षेत्र के बेणीसर कुंए का पानी देश की बड़ी शोध शाला तक पहुंचाया गया। तीसरा पानी खारा कड़वा। इस खारे पानी में न तो धान पकता था और न ही चाय बनती थी। यह पानी कपड़े धोने के लिए उपयोग में लिया जाता था। जिस कुएं में खारा पानी निकलता उस कुएं को खारियां कुंआ कहते थे।
मरूक्षेत्र (राजस्थान) में जल-प्रबन्धन का प्रथम साक्ष्य सिन्धु सभ्यता के प्रारम्भिक काल में मिलता है एवं यह प्रथम होने का सौभाग्य बीकानेर संभाग के हनुमानगढ़ जिले के कालीबंगा नामक स्थान को जाता है, जहाँ के निवासीय क्षेत्रों में जल-आपूर्ति के लिए कुओं का निर्माण किया गया था। वर्तमान में जो कुंओं संबंधि अवशेष एवं जानकारी मिल रही है उसमें इन कुंओं के पास लगे शिलालेख प्रमुख रूप से है। बीकानेर मंे कुओं के निर्माण को इतिहास काफी प्राचीन है। कुएं के निर्माण के लिए सबसे पहले शाषित राजा से अनुमति लेनी आवश्यक होती थी। उस काल में राजा की अनुमति के बिना कोई भी सार्वजनिक कार्य आरम्भ नहीं करवाया जा सकता था। राज-दरबार से पूरा लेखा-जोखा सहित लिखित अनुमति के साथ ही कार्य आरम्भ होता था। और इसी स्वीकृति के आधार पर ही कुएं के निर्माण हेतु सुंघा द्वारा जमीन का चयन किया जाता था। सुंघा जाति-विशेष न होकर ऐसा व्यक्ति होता था जिसको जमीन के अन्दर पानी कहां मिलेगा उसकी परख होती थी। बीकानेर के आस-पास के गांवों में सुंघा लोगों का निवास था। सुंघा थोड़ी सी जमीन खोद कर, मिट्टी को सुंघकर बता देते थे कि यहां पानी मिठा निकलेगा, यहां कुंआ खोदना उचित रहेगा। यहीं से पूरे विधि-विधान से कुंए की खुदाई का कार्य आरम्भ हो जाता था। कुएं के निर्माण हेतु चयनित जमीन सेठ-साहूकार की अपनी जमीन होती थी या फिर समाज की। इसी प्रकार जाति विशेष की भी अपनी जमीन होती थी जिसका बकायदा पट्टा राज-दरबार द्वारा स्वीकृत होता था। कुएं परिसर के निर्माण हेतु जितनी जमीन की आवश्यकता होती थी उससे कई गुणा जमीन की आवश्यकता उस कुएं की सारण के लिए छोड़ी जाती थी।
कुएं की खुदाई का कार्य आरम्भ होने से पहले उस जमीन को मंत्रो उच्चारण के साथ शुद्ध किया जाता था तथा प्रतिष्ठा करवाई जाती थी। कारीगरों को पूजा स्थल पर बुलाया जाता था। औजारों की पूजा की जाती थी। ईष्वर से मीठे पानी निकलने हेतु प्रार्थना की जाती थी। यह सभी कार्य विशेष मूर्हत एवं दिन के अनुसार सम्पन्न होता था। कुएं कि लम्बाई और चौड़ाई उसके नीचे मिलने वाले पानी पर निर्भर होती थी। जहां पानी की मात्रा ज्यादा एवं कम गहराई में मिलने की संभावना होती थी वहां कुएं का व्यास (लम्बाई चौड़ाई) बड़ा होता था। और जहां पानी के गहरे मिलने की संभावना होती थी वहां कुंए का व्यास छोटा होता था। चौड़ा अर्थात बड़ा खुदवाने के पीछे मूलतः भावना यह रहती थी कि एक साथ दो या चार चड़स पानी निकाला जा सके।
बीकानेर में पानी बहुत गहरा होता था इसलिए कुएं का निर्माण बहुत ही धीरे-धीरे उल्टी चीनाई के साथ किया जाता था। कुएं की खुदाई हेतु 4-5 फुट धरातल को खोदा जाता था और उसकी नीचे से ऊपर की ओर चीनाई कर दी जाती थी। इस चीनाई को ऊंध चीनाई कहते है। यहां पर्याप्त मात्रा में खारा चुना मिल जाता था इसलिए छोटी ईंट या पत्थर के साथ चुने द्वारा चीनाई की जाती थी। कुएं के अन्दर लगने वाले पत्थर के बाहरी भाग को सतमल रखा जाता था तथा उनका माप-तौल इस प्रकार रखा जाता था कि वह एक दूसरे से चिपके रहते थे। इन पत्थरों को मजबूती देने के लिए इनको इंटों एवं पत्थर के टुकड़ों (कातर) द्वारा बहुत ही मजबूती के साथ लगाया जाता था। यह चिनाई एक गोल घेरे के रूप में की जाती थी। एक घेरा निर्मित होने पर अगले घेरे की चीनाई शुरू होती। इस प्रकार बहुत धैय एवं सावधानीपूर्वक चीनाई की जाती थी। जैसे-जैसे यह खुदाई पाताळ की तरफ बढ़ती वैसे-वैसे काम करना मुश्किल हो जाता था। रस्सियों, मचियों से सामान नीचे पहुंचना और व्यक्ति कम जगह में खड़ा रहकर खुदाई करना एवं मिट्टी को बाहर निकालना तथा चिनाई करना बहुत ही कठिन कार्य था। जब तक पानी नहीं निकल जाता तब तक खुदाई एवं चिनाई की प्रक्रिया लगातार चलती रहती थी। और अंत में पाताळ से पानी बाहर आने लगता उस समय खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहता । पानी के निकलने के साथ ही आस-पास के क्षेत्र में थाली बजाकर सूचना की जाती थी। और लोग कुएं पर इकट्ठा होना प्रारम्भ हो जाते थे। एक बड़े उत्सव की तरह लोग एक-दूसरे को बधाईयां देते और हर्षोल्लास मनाते थे।
कुंओं का वास्तु देखे तो पता चलता है कि यह कुएं केवल पानी का स्त्रोत नहीं थे। कुएं के साथ जुड़ी उसकी सारण हाती थी। सारण वह स्थान जहां कुएं से पानी निकालने हेतु ऊंट या बैलों को जोड़कर पानी खींचने का कार्य करते थे। जितना गहरा कुंआ होता था उतनी ही लम्बी उस कुएं की सारण होती थी। सारण को थोड़ा ढलवा बनाया जाता था जिससे ऊंट या बैलों को चलने में सुविधा रहती थी। साथ काफी कुंओं पर देखा गया कि यह सारण पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर होती थी। जिससे पशु जब पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर चलते थे तो उनके सामने सूर्य कि किरणे न पड़े। बीकानेर में दो सारण तथा चार सारण वाले भी कुएं है, (इन कुंओं को चौतीणा कुंआ कहा जाता है) जहां एक साथ दो या चार चड़सों द्वारा पानी बाहर निकाला जाता था। पाताळ से पानी निकाल कर हमें उपलब्ध करवाने के लिए चड़स को बार-बार डुबकी लगानी पड़ती थी। और एक बार की पानी के नीचे से ऊपर तक आने पूरी प्रक्रिया बारी या वारो कहलाती थी। इस काम को करने वाले बारियो कहलाते थे। इतनी वजनी चड़स को कुएं के ऊपर खाली करने के काम में बल और बुद्धि दोनो की आवश्यता होती थी। पानी से भरी चड़स जब भरी चड़स ऊपर आकर थमती थी तो उसे हाथ से न पकड़ कर पहले दूसरी तरफ धक्का देते थे, यहां न्यूटन के गति के नियमानुसार जब हम किसी लटकी वस्तु को धक्का देते है तो वह पुनः हमारी ओर तेज गति से आती है। इसी नियमानुसार जब चड़स को धक्का देते थे तो वह गति के साथ जगत तक आ जाती, उस समय उसको खींच कर लिया जाता था। सीधे तौर पर चड़स को हाथ में ले तो चड़स के वजनी होने के कारण व्यक्ति भी कुएं में गिर जाने का पूरा खतरा रहता था। इस प्रकार पाताल से पानी बाहर आ जाता था।
चड़स को कुएं पर बनी खाळी खाली किया जाता था, और यह पानी खाळी से कुओ पर बने हौदों में चला जाता था। कुंओं के परिसर पर चारो दिशाओं में लगभग 10 बाई 10 फुट लम्बे-चौड़े एवं 5 फुट गहरे हौद बने नजर आते है। बड़े आकार के कुंओं में इन हौदो का आकार भी बड़ा होता था। यह हौद दुलमेरा के लाल पत्थरों से बहुत ही सुन्दर तरीके से बनाए जाते थे। इन हौदों में पानी भरने की नाली बनी होती थी जहां से लोग पानी भरा करते थे। इन हौदों में से जुड़ी नालियां अलग-अलग वर्ग समुदाय की होती थी। जिस समुदाय या वर्ग विशेष के लिए जो नाली बनी हुई थी वह वहीं से पानी ले सकता था अन्य स्थान से नहीं। उस काल में छुआछूत एवं वर्गभेद बहुत था। फिर भी कुंओ पर सभी वर्ग अपनी मर्यादा अनुसार पानी भरा करते थे। इन बड़े हौदों के साथ ही छोटी खाळियां भी बनी होती थी जिनमें पशुओं के लिए पीने का पानी होता था। तथा सिंचाई के लिए पानी दिया जाता था। उस समय पेयजल आवश्यकताएं कुओं के जल से ही पूरा हुआ करती थी, गर्मी के मौसम में आम आदमी को निःशुल्क पानी उपलब्ध करवाने के लिए सेठ-साहूकार कुओं का पैसा स्वयं भर देते थे, तब हर किसी को पानी मिल पाता था। इसे पौ छुड़ाना कहते थे।
बीकानेर में कुंओं पर लाल पत्थरों से बहुत ही कलात्मक छतरियां बनी हुई है। यह छतरियां बाहर से आने वाले यात्रियों एवं आम व्यक्ति के लिए विश्रामगृह के रूप मे उपयोग आती थी। कई कुंओं से आस-पास के गांवों से भी लोग पानी भरने आते थे। वह इन्ही छतरियों में रूकते थे। ज्यादातर कुंओं में इन छतरियों की संख्या दो है लेकिन बड़े कुंओं पर इन छततियों की संख्या चार पाई गई है। बरसात से बचने के लिए भी इन छतरियों का उपयोग किया जाता था। कुआं सींचने वाला व्यक्ति भी इन्ही छतरियों के नीचे दोपहर के समय कुछ देर आराम करता था। इन कुंओं पर बेल-बूटे या कौरनी का काम बहुत ही कम या न के बराबर देखने को मिलते है। लेकिन कुएं के चारो ओर पेड़ों का होना, (मुख्यतः कुंओं के पास पीपल, नीम एवं खेजड़ी के छायादार पेड़ होते थे जिनके नीचे बैठकर व्यक्ति आराम कर सकते थे) विशाल चौक (मैदान) का होना आदि बहुत ही सुखद वातावरण निर्माण करता था। कुएं ऐसा स्थान था जहां सुबह एवं सायं दोनो समय बहुत चहल-पहल हुआ करती थी। औरते एवं पुरूष दोनो ही पानी भरने के लिए बहुतायत में यहां इकट्ठा होते थे। जब तक पानी भरने का नम्बर आता तब तक आपस में सुख-दुखः की बाते बतियाते रहते थे। लोग आपस में घुलेमिले हुए थे। घूंघट प्रथा होने के कारण औरते बड़ों का लिहाज करती थी। एक सांस्कृतिक वातावरण बनता था।
कुंआ परिसर से 30-40 मीटर दूर ही पत्थर का एक स्तम्भ होता था। इस स्तम्भ को गोवर्द्धन या कीर्ति स्तम्भ कहते है। इस पत्थर की चौड़ाई चारो ओर से लगभग 1-1 फुट की होती थी तथा इसका बाहरी हिस्सा लगभग 4 फुट बाहर की ओर रहता था। जिस पर सांप, गणेश, सूर्य एवं इस स्तम्भ पर निर्माणकर्ता का नाम, संवत, वार, आदि जानकारियां मुडिया, मारवाड़ी या संस्कृत भाषा में उकेरी जाती थी। साथ ही दूर से ही किसी व्यक्ति या यात्री को पानी के स्थान होने का पता चल जाता था। बीकानेर में प्रत्येक कुएं के पास मंदिर का निर्माण अवश्य करवाया जाता था। और इन कुएं से निकलने वाले पहले चड़स भरा पानी (बारे) इन्ही मंदिरों में चढाया जाता था। बीकानेर में कुएं के पास ‘‘बाड़ी’’ होने का उल्लेख बहुत स्थानों में मिलता है। यहां कुंआ सींचने (पानी निकालना) का काम मुख्य रूप से माली जाति के लोग करते थे। यह माली सुबह एवं सायं दोनो समय इसी कुएं पर काम करता था और लोगों का पानी उपलब्ध करवाने का कार्य करता था। इनको अपने परिवार के लालन-पालन के लिए कुएं के पास रहने हेतु जमीन दी जाती थी तथा कुएं के पास कुछ जमीन दी जाती थी जहां वह सब्जी, फल-फूल आदि की छोटी मात्रा में खेती करता था। इस खेती को बाड़ी कहते थे। बीकानेर की बहियों में यह उल्लेख मिलता है कि कुंआ सीचंने वाले व्यक्ति को निःशुल्क पानी दिया जाता था। जहां कुएं होते थे वहां मेले-मगरिये भी लगते थे। इन मेलो में मुख्य रूप से गणगौर का मेला कुंओं पर लगता है।
सबसे गंभीर चिंतन का विषय है इन जल स्त्रोतों की भूमि पर अतिक्रमण। इन पेयजल स्त्रोतों की समुचित देखभाल न होना। वर्तमान इन कुओं की बहुत दुर्दशा हो रही है जनसंख्या बढने के साथ-साथ ज्यादा रहवासों की आवश्यकता बढ़ने लगी। आम जन को इन जल स्त्रोतों की भूमि बहुमूल्य नज़र आने लगी और बस्तियों ने कुओं की सारणों को ही लीलना शुरू कर दिया। जिस तरीके से जनसंख्या में बढ़ोतरी हुई उसी गुणा में इन कुओं के आस-पास की जमीनों में कब्जे होने लगे कुएं के पास बने चौक एवं सारणे तो विलुप्त हुई ही है, और इनके साथ-साथ कई कुएं भी रहवास हेतु भेंट चढ़ गये। कुओं के निर्माण से संबंधित कीर्ति सतम्भ जिनसे हमें ऐतिहासिक जानकारी मिल सकती थी, यह स्तम्भ लोगों के घरों में, घर के बाहर बनी चौकियों में दबे पड़े देखने को मिलते है। हां मानते है कि बीकानेर के काफी कुएं अब पानी देने में असमर्थ होंगे। लेकिन एक समय था जब यही इन्हीं कुओं से हमारे पूर्वज अपनी प्यास शांत करते थे। हमारे मकान के निर्माणों में इन्हीं कुओं का पानी उपयोग लिया जाता था। हमें सोचना होगा कि इन कुओं को कितने जतनो से बनाया गया, कितने व्यक्तियों का परिश्रम लगा एवं कितनी पूंजी। इन्ही कुओं ने हमारी कई पीढ़ियों को पाला पोशा। आज अधिकतर कुएं गंदगी (अकूड़ी) के ढेर बने हुए है। कचरे से सटे पटे हुए है। मौहल्ले को गंदगी फेंकने का स्थान बने हुए है। न तो इनके परिसर की कोई थाह ले रहा है, और न ही इन पर बने कलात्मक छतरियां एवं हौदों (कोठे) की। समाज का क्या यही धर्म है कि जब तक हमें किसी से कुछ मिलता रहे तब तक हम उसको पूजते रहे, जब उसकी आवश्यकता कम हो तब हम उसको भुल जाए। हो सकता है आज इनका पानी सूख गया हो, लेकिन हमारी मानवता सूखनी नहीं चाहिए। हमें इन कुओं को उनकी वैभवता लौटानी चाहिए। इनको साफ-सुथरा रख कर हमारे आस-पास बिखरे इतिहास को संजोकर रख सकते है। इसी इतिहास से हम आने वाली पीढ़ि को जल के महत्व को बता सकते है।