हम सुबह – सुबह जैसे ही स्नान आदि से निवृत होकर नाश्ते के लिए डायनिंग टेबल पर उपस्थित हुए कि हमारे एकतरफा घनिष्ठ मित्र चकरमजी अनायास ही हमारे घर आ धमके। उनका ये आगमन लगभग वैसा ही था जैसे किसी सरकारी दफ्तर में टेबल पर सिर रखे ऊंघ रहे कर्मचारी के सामने कोई आला अफसर अथवा मंत्री बिना किसी पूर्व सूचना के कार्यालय निरीक्षण हेतु आ धमके। बहरहाल, चकरम जी ने बिना किसी औपचारिकता के हमेशा की तरह हमारे घर को अपना ही घर समझते हुए कुर्सी पर बैठते हुए हमारी धर्मपत्नी को दो गर्मागर्म परांठों और एक कप कड़क चाय का ऑर्डर दे डाला। वे चाहते थे कि हमें भी उनके साथ चाय पीने का दुर्लभ अवसर मिले, सो हमारी सहमति से चाय के दो कपों की मांग किचन तक पहुंचा दी गई।
चाय और नाश्ते की प्रक्रिया के दौरान हमारी जिज्ञासा को शान्त करते हुए चकरमजी ने अपने आने का महान मंतव्य प्रकट किया। उन्होंने निवेदन के पैकेट में लिपटा हुआ यह आदेश हमारी ओर उछाल दिया कि ‘बंधु, आज हमने इस नाशवान संसार में अपनी अर्द्ध शताब्दी पूरी कर इक्यावन वें वर्ष में प्रवेश कर
लिया है। निश्चित रूप से तुम्हें यह जानकर बहुत आत्मिक प्रसन्नता का अनुभव हो रहा होगा। ‘ हम हड़बड़ाकर हां कहते उससे पूर्व ही वे बोले कि ‘बंधु, आज तुम फेसबुक और इंस्टाग्राम सहित सोशल मीडिया के सभी मंचों पर हमें हमारे अवतरण दिवस पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं दे सकोगे।’
उनकी बात सुनकर हमने उनका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा कि ‘चकरमजी, आपको जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई…’ हम अपना वाक्य पूरा कर पाते उससे पहले ही उन्होंने ‘जन्मदिन’ शब्द पर अपनी
आपत्ति दर्ज करा दी। उन्होंने कहा कि ‘बंधु, आज हमारा जन्मदिन नहीं बल्कि अवतरण दिवस है, तुम पढ़े-लिखे इंसान हो, भाषा को बरतना सीखो।’ हमें लगा कि हमसे चकरमजी की शान में कोई भारी गुस्ताखी हो गई है। हम क्षमायाचना की कोई प्रक्रिया आरम्भ करते उससे पहले ही चमरमजी ने स्वयं को श्रीकृष्ण और हमें अर्जुन के रूप में अनुभूत कर कहना आरम्भ किया कि ‘बंधु, तुम सोशल मीडिया पर प्रतिदिन अनमोल जीवन के आठ-दस घण्टे व्यतीत करते हो फिर भी ये नहीं जानते कि आजकल किसी का जन्म नहीं होता, सभी अवतार हैं, इसीलिए तो हर आड़े-टेढ़े के लिए भी ‘अवतरण दिवस’ शब्द का प्रयोग धड़ल्ले से होता है, फिर तुमने हमें अंडर स्टीमेट क्यों किया, हम समझ नहीं पा रहे हैं?’
चकरमजी की प्रखरता उनके चेहरे और शब्दों से टप- टप टपकने लगी। हम अर्जुन की भांति लगभग सम्मोहन की अवस्था में आत्मग्लानि से भरे हुए चकरमजी को सुन रहे थे। उन्होंने हमें तकरीबन फटकारते हुए कहा कि ‘भाषा और व्याकरण की दलील तो तुम देना मत। जो सोशल मीडिया के लोग हनुमानजी के लिए जयंती शब्द के प्रयोग पर आपत्ति जताकर उनके लिए ‘जन्मदिन’ और सामान्य मनुष्यों के लिए ‘अवतरण दिवस’ शब्द का प्रयोग करते हैं, वे मूर्ख थोड़े ही हैं। क्या वे भाषा का मर्म नहीं जानते?’ उन्होंने कहा ‘बंधु, भले ही हमने तुम्हारी नज़र में इस संसार में अपनी आधी शताब्दी व्यर्थ गुजारी होगी लेकिन जब टुच्चे मुच्चे लोगों का भी अवतरण दिवस हो सकता है, तो हमारा क्यों नहीं ?’
इतना कहकर चकरमजी हमें अपना अवतरण दिवस मनाने का आदेश देकर चले गए लेकिन जाते जाते वे हमारे लिए एक सवाल छोड़ गए कि क्या हम सोशल मीडिया पर भाषा और शब्दों के साथ जाने- अनजाने में कहीं कोई खिलवाड़ तो नहीं कर रहे हैं? इस सवाल का जवाब तो चकरमजी के अगले ‘अवतरण दिवस’ तक भी नहीं मिला लेकिन चचा ग़ालिब का एक शे’र जरूर मिल गया है-
हविश जीने की है यूं उम्र के बेकार करने पर
जो हमसे ज़िन्दगी का हक़ अदा होता तो क्या होता
– संजय आचार्य ‘वरुण’