तिरछा तीर: फिर हम कब बनेंगे एम एल ए
- संजय आचार्य 'वरुण'
हम रविवार की आलसी सुबह में प्रात:काल नौ बजे तक अपने बिस्तर पर सप्ताह के छह दिनों की नींद में रही कमी को पूरा करने का प्रयास कर रहे थे। कम से कम एक-आध घंटे तक और सोने के हमारे लक्ष्य को श्रीमती जी की आवाज ने भंग कर दिया, उन्होंने हमें ये हृदय विदारक सूचना दी कि 'उठिए, आपके मित्र चकरम जी आए हैं।'
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यह नाम सुनकर हमारी नींद कपूर की तरह उड़ गई। इतना भय शायद लोगों को सी बी आई और ई डी की रेड के समय भी नहीं लगता होगा जितना हमें हमारे मित्र चकरम जी के अप्रत्याशित आगमन पर लगा करता है, और लगे भी क्यों नहीं, चकरमजी हमारे शहर की एक महान विभूति जो ठहरे। उनको अगर अतृप्त इच्छाओं का मानवीय स्वरूप कहा जाए तो गलत नहीं होगा।
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कभी वे साहित्यकार बन जाते हैं त...