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Thursday, September 19

तिरछा तीर: फिर हम कब बनेंगे एम एल ए

– संजय आचार्य ‘वरुण’

हम रविवार की आलसी सुबह में प्रात:काल नौ बजे तक अपने बिस्तर पर सप्ताह के छह दिनों की नींद में रही कमी को पूरा करने का प्रयास कर रहे थे। कम से कम एक-आध घंटे तक और सोने के हमारे लक्ष्य को श्रीमती जी की आवाज ने भंग कर दिया, उन्होंने हमें ये हृदय विदारक सूचना दी कि ‘उठिए, आपके मित्र चकरम जी आए हैं।’

यह नाम सुनकर हमारी नींद कपूर की तरह उड़ गई। इतना भय शायद लोगों को सी बी आई और ई डी की रेड के समय भी नहीं लगता होगा जितना हमें हमारे मित्र चकरम जी के अप्रत्याशित आगमन पर लगा करता है, और लगे भी क्यों नहीं, चकरमजी हमारे शहर की एक महान विभूति जो ठहरे। उनको अगर अतृप्त इच्छाओं का मानवीय स्वरूप कहा जाए तो गलत नहीं होगा।

कभी वे साहित्यकार बन जाते हैं तो कभी समाजसेवी। कभी उन्हें उद्योगपति बनने की लालसा जागृत हो जाती है तो कभी दार्शनिक अथवा मोटिवेशनल गुरू बनकर स्पीच देने को आतुर हो जाते हैं। जब उनके दिमाग में और कुछ नहीं आता तब- तब वे राजनीति में सक्रिय हो जाते हैं।

हम उनके बारे में सोचते- सोचते बिस्तर से उठकर गुसलखाने की तरफ प्रस्थान करने ही वाले थे कि चकरम महोदय की सवारी हमारे शयन कक्ष में ही प्रवेश कर गई। हमें नौ बजे तक सोते हुए देखकर उन्होंने इस रहस्य से पर्दा उठाया कि हम इतना देर से उठने के कारण ही जीवन में तरक्की नहीं कर पा रहे हैं। बहरहाल हमारे गुसलखाने से लौटकर आने के बाद उन्होंने हमें उलाहना दिया कि ‘तुम यहां लम्बी तानकर सो रहे हो और उधर शहर की राजनीति में जाने क्या-क्या हो रहा है!’

ऐसा क्या हो रहा है कि आप इतना परेशान हो रहे हैं चकरम जी ?’ हमने उनको सांत्वना देते हुए पूछा।
‘मत पूछो कि क्या हो रहा है, तुम्हें पता है कि विधानसभा के चुनाव सिर पर हैं। हम पार्टी के लिए दिन-रात मरते खपते हैं, किस लिए? इसलिए कि एक दिन हमें एम एल ए का चुनाव लड़ने के लिए टिकट मिलेगा..’
तो इसमें दिक्कत क्या है चकरम जी.. एक न एक दिन आपकी योग्यता की कद्र जरूर होगी, आप भरोसा रखिए।’ हमने चकरम जी की बात बीच में काटते हुए कहा।

क्या खाक भरोसा रखें, भरोसा रखते – रखते तो साठ बरस के हो गए, जाने कब टिकट मिलेगा, अगर भरोसा रखते- रखते दो चुनाव और बीत गए तो फिर तो सत्तर साल की उम्र में क्या हमारे स्वर्गीय पिताजी हमें टिकट देंगे ? देखते नहीं, अच्छे -भले, चुस्त-दुरुस्त मंत्री जी के टिकट पर भी उम्र की तलवार लटकी हुई है। ये तो कुछ नहीं अभी तो हमारे टिकट पर कुछ संकट और मंडरा रहे हैं।’

‘आपके टिकट पर और कौनसे संकट हैं चकरम जी ?’ हमने पूछा तो वे भन्नाकर बोले कि ‘तुम शहर में नहीं रहते क्या बंधु, देखा नहीं, हमारी खुद की पार्टी में भविष्य के दस- बारह विधायक इस बार टिकट के लिए बीन्द बने बैठे हैं… चलो, यहां तक भी ठीक है पर कोढ़ में खाज तो ये हो गई कि एक दो प्रवासी बंधु भी छुट्टी लेकर एम एल ए बनने के लिए यहां आए हुए हैं। अब तुम ही बताओ बंधु कि ये बात हमारी नींद उड़ने के लिए पर्याप्त नहीं है?’

चकरम जी की बात सुनकर हमें उनसे जरा सहानुभूति होने लगी। हमें ये समझ में आया कि राजनीति में सबसे ज्यादा महत्व भी कार्यकर्ता का होता है और सबसे ज्यादा महत्वहीन भी कार्यकर्ता ही होता है। कार्यकर्ता हमेशा आखिर में ठगा सा खड़ा रह जाता है और मलाई दूसरे खा जाते हैं।
‘आप चिन्ता न करें चकरम जी, ये लोकतंत्र है, इसमें सभी को अपने लिए प्रयास करने का अधिकार है। आप भी अपने लिए प्रयास कीजिए और निष्ठावान कार्यकर्ता होने के नाते पार्टी से टिकट मांगिए।’ हमने चकरम जी को दिलासा देते हुए कहा।

‘आप ठीक कहते हैं बंधु कि लोकतंत्र में सभी को अपने लिए प्रयास करने का अधिकार है लेकिन भइये हम तो केवल नाम के चकरम हैं, राजनीति में तो हमसे बड़े कई चकरम हैं जो ऐन वक्त पर ऐसे चक्कर चलाते हैं कि हमारे जैसे कार्यकर्ता कभी भी अच्छे पद पर पहुंच कर जनता की सेवा नहीं कर पाते हैं। ये राजनीति है बंधु, हमने सत्ता और कुर्सी के इस खेल में विचारधाराओं के किलों को ऐसे ध्वस्त होते देखा है कि जैसे बरसात के मौसम में पुराने जर्जर मकान ध्वस्त हो जाते हैं।

देखा नहीं तुमने, एक-दूसरे को पानी पी- पीकर कोसने वाली पार्टियों ने केवल सत्ता प्राप्ति के लिए अपनी विचारधाराओं और सिद्धांतों को ताक पर रखकर इण्डिया नाम का गठबंधन बना लिया है। जो मतदाता और कार्यकर्ता इनके विचारों से प्रभावित होकर इनसे जुड़ता है, ये लोग सत्ता प्राप्ति की भूख में उसकी भावनाओं को नजरअंदाज करते हुए आपस में अलोकतांत्रिक सौदेबाजी कर लेते हैं और उसे गठबंधन का लोकतांत्रिक नाम दे देते हैं।’

चकरम जी मूड में आ गए थे और धाराप्रवाह बोले जा रहे थे। ‘बुरा मत मानना भइये! राजनीति में भले ही हमारी औकात दो कौड़ी की भी न होगी लेकिन हमने पुराने दौर की शालीन और ईमानदार राजनीति देखी है। हम सोशल मीडिया के द्वारा पैदा किए हुए नेता नहीं हैं। हमारे पास न तो कोई तथाकथित टीम है, न फैन्स क्लब और न ही अपनी मार्केटिंग करने वाला कोई मंच है। हमारे पास तो हमारी ईमानदारी और संस्कार हैं। हम सत्ता पाने के बाद अपने वादे भूल जाने वाले नेता नहीं हैं।

क्योंकि कुर्सी तो ज्यादा से ज्यादा पांच- दस साल रहती है लेकिन ये जनता हमेशा रहती है। बंधु, एक बात हमेशा याद रखना कि ये जनता जितनी भोली दिखाई देती है ना, उतनी है नहीं। ये सब जानती है कि कौन कितने पानी में है। इतना कहकर चकरम जी भले ही उठकर हमारे कक्ष से बाहर चले गए लेकिन कुछ सवाल थे, जो वे हमारे जैसे निरीह भारतीय के लिए छोड़ गए। ऐसे सवाल जो भारतीय राजनीति में हमेशा अनुत्तरित ही रहे हैं।

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