दीनदयाल शर्मा
मेरे एक मित्र की लडक़ी है। नाम है प्रहेलिका। दस वर्ष की उम्र और छठी कक्षा में पढ़ती है। स्वभाव से बातूनी इतनी कि किसी को बोलने का मौका ही नहीं देती। आप बस ‘हां’ ‘हूं’ करते रहें या फिर उसकी पहेलियों को सुलझाने में अपना दिमाग दौड़ाते रहे।
प्रहेलिका पढऩे में भी बहुत होशियार है। अपनी कक्षा की मॉनिटर है और सबकी चहेती भी।
एक दिन मैं अपने मित्र के घर गया। प्रहेलिका दरवाजे के बीच खड़ी थी। बोली, ‘अंकल, बहुत देर कर दी आपने। पापा आपका इंतजार करते करते ही गए हैं।’
‘कहां ?’ मैंने पूछा।
‘पान वाले की दुकान पर।’ उसने सहजता से उत्तर दिया। फिर वह बोली, ‘पापा आते हैं, तब तक अपने कुछ गपशप कर लेते हैं। क्यों अंकल ?’
‘हां, यह ठीक रहेगा।’ मैंने बैठक में रखी कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
‘अंकल, मैं एक पहेली पूछूं ?’
मैंने एक पत्रिका उठाते हुए कहा, ‘हां, पूछो।’
वह मेरे हाथ से पत्रिका छीनते हुए बोली, ‘अंकल, पहले मेरी पहेली का उत्तर दो। फिर कोई पत्रिका पढऩा। बोलो, तैयार हो ?’
‘हां, तैयार हूं।’ दोनों हाथों को अपनी बगल में दबाते हुए मैंने कहा।
प्रहेलिका बोली, ‘एक गडरिया होता है। उसके पास तीस भेड़ें हैं। वह भेड़ें लेकर एक गांव में आता है। वह भेड़ों को पानी पिलाना चाहता है। गांव में एक कुआं होता है। कुएं वाला एक रुपये में दो भेड़ों को पानी पिलाने की बात कहता है। गडरिया बोला- मैं आज रात यहीं रूकूंगा। कल जाऊंगा। भेड़ों को कल भी पानी पिलाना है। हिसाब करके पैसे कल ही दे दूंगा। कुएं वाले ने कहा- ठीक है, पैसे कल दे देना। और गडरिये ने अपनी तीस भेड़ों को पानी पिलााया। रात भर गांव में रूकने के कारण गडरिये की कुएं वाले से मित्रता हो गई। अत: इस दिन कुएं वाले ने उससे एक रुपए में तीन भेड़ों के हिसाब से पानी पिलाने की बात कही। गडरिये ने सभी भेड़ों को पानी पिलाया और उससे बोला- कल और आज के कुल कितने पैसे हो गए ? कुएं वाला बोला- कल एक रुपये की दो भेड़ें थी। इसलिए तीस भेड़ों के कुल पन्द्रह रुपए हो गए और आज एक रुपए की तीन भेड़ें हैं। इसलिए आज तीस भेड़ों के दस रुपए हो गए। पन्द्रह और दस यानी कुल पच्चीस रुपए हो गए। गडरिया बोला- मैं इतना पढ़ा लिखा तो नहीं हूं लेकिन तुम्हारा हिसाब मुझे कुछ गलत लगता है।
अब आप बताओ अंकल, कया गडरिये की बात सही है या कुएं वाले का हिसाब सही है ?’
‘गलत कहां है। पन्द्रह और दस कुल पच्चीस रुपये ही तो बनते हैं।’ मैने झट से कहा।
‘देख लो अंकल, सोच समझ कर बताओ। नहीं तो आप हार जाएंगे।’
‘इसमें हारने वाले क्या बात है। कुल पच्चीस रुपए ही तो बनते हैं।’ मैंने दृढ़ता से कहा।
प्रहेलिका ने अपने दोनों हाथों की कोहनियों को कुर्सी के हत्थे पर टिकाया और अंगुलियों को कंघी बना कर उस पर ठोडी रखते हुए पूछा- ‘अंकल, एक बात बताओ। यदि आपको पंच बना दिया जाए तो आप कुएं वाले का पक्ष लेंगे या गडरिये का ?’
‘मैं किसी का भी पक्ष नहीं लूंगा। न गडरिये का और न ही कुएं वाले का। साफ -साफ हिसाब बता दूंगा कि पच्चीस रुपए बनते हैं।’
‘लेकिन गडरिया कहता है कि कम बनते हैं।’ अपनी बात पर जोर देते हुए प्रहेलिका ने कहा।
‘कम कैसे बनते हैं। गडरिये के पास तीस भेड़ें हैं। एक रुपए की दो भेड़ों के हिसाब से पहले दिन पन्द्रह रुपए और दूसरे दिन एक रुपए की तीन भेड़ों के हिसाब से दस रुपए यानि कुल पच्चीस रुपए बनते हैं। हिसाब तो शीशे की तरह साफ है।’
‘देख लो अंकल, हिसाब फिर से कल लो।’
‘मैंने हिसाब कर लिया। पूरे पच्चीस ही बनते हैं।’ मैंने कहा।
‘यदि कम बने तो आपको हार माननी पड़ेगी।’
‘ठीक है मुझे मंजूर है।’
‘तो अब ध्यान से सुनना अंकल। गडरिये के पास कुल भेड़ें थी तीस। उसने सभी भेड़ों को पहले दिन एक रुपए की दो भेड़ों के हिसाब से पानी पिलाया।’
‘हां, ठीक है।’
‘दूसरे दिन गडरिये ने एक रुपए की तीन भेड़ों के हिसाब से पानी पिलाया।’
‘हां, ये भी ठीक है।’
‘अब आप देखिए अंकल, पहले दिन तीस भेड़ों ने पानी पीया और दूसरे दिन फिर उन्हीं तीस भेड़ों ने पानी पिया। यानी दो दिनों में कुल साठ भेड़ों ने पानी पीया।’
‘बिल्कुल सही है।’
‘पहले दिन एक रुपए की दो भेड़ और दूसरे दिन एक रुपए की तीन भेड़ें पानी पीती हें। यानी दो दिन के हिसाब से दो रुपए की पांच भेड़ें पानी पीती है।’
‘हां, ये भी ठीक है।’
‘जब पांच भेड़ें दो रुपए में पानी पीती हैं तो कुछ साठ भेड़ें चौबीस रुपए में पानी नहीं पीएंगी क्या ?’
‘अरे वाह, प्रहेलिका तूने तो कमाल कर दिया। तुम्हारा हिसाब तो बिलकुल सही है। वाकई पच्चीस नहीं चौबीस रुपए बनते हैं। मैं हार मान गया भई।’
प्रहेलिका खुश होकर बोली, ‘आपको हरा दिया न अंकल।’
‘हां भई, हरा दिया।’ मैंने धीरे से कहा।
‘अंकल, एक पहेली और पूंछू ?’ प्रहेलिका ने मुस्कराते हुए बोली।
‘पूछो, इस बार नहीं हारूंगा।’ मैंने कहा।
‘तो सुनो, एक बाप और एक बेटा कार में कहीं जा रहे थे। रास्ते में कार का एक्सीडैण्ट हो गया। लोगों ने बाप बेटे को अस्पताल पहुंचाया। अस्पताल में डाक्टर ने उस घायल लडक़े को देखते हुए कहा- अरे। यह तो मेरा बेटा है।’
‘यह कैसी पहेली है।’ मैं बोला।
‘अंकल, यही तो पहेली है। अब आप बताएं कि उस लडक़े को डॉक्टर ने अपना बेटा क्यों बताया ? जबकि उस लडक़े का बाप तो उसके साथ।’
‘भई, मेरी तो समझ से बाहर है। डॉक्टर को कोई भ्रम हो गया होगा या वह लडक़ा उसके बेटे जैसा होगा।’
‘नहीं अंकल।’
‘फिर ?’
‘पहले हार मानो तो बताऊं।’ प्रहेलिका आंखें मटकाती हुई बोली।
‘एक मिनट मुझे सोचने दो। वे दोनों बाप-बेटे थे। डॉक्टर ने उसके बेटे का अपना बेटा बताया। समझ में नहीं आ रहा है। चक्कर क्या है। चलों, तुम्ही बताओ।’
‘हार मान ली?’
‘हां।’ मैंने लम्बी सांस लेते हुए कहा।
‘वह डॉक्टर उस लडक़े की मां थी।’ प्रहेलिका ने जोर से हंसते हुए कहा।
‘अरे… हां… यह तो मैंने सोचा ही नहीं था।’ मैंने सिर खुजाते हुए कहा।