शालिनी अग्रवाल
उड़ाए हैं खूब बचपन में
अब भी कहीं दिख जाए कोई पैंपलेट
बिल या इश्तिहार
तो बिना हवाई जहाज बनाए
उस कागज का कोई मोल नहीं होता
उड़ता है जब वो आसमान में
हवा से बातें करते हुए,
अपनी कारीगरी पर बड़ा फक्र होता है
टकराकर गिर जाता है जब नीचे
तो प्लेनक्रैश जैसा दर्द होता है
अब बचपन तो नहीं है
लेकिन बचपन बाकी है
कागज के जहाज ने कई
मुश्किलें बांटी हैं
टकरा गया था किसी अजनबी से कभी
वो अजनबी बन गया हमनबी
वो भी कई बार कागज के जहाज उड़ाता है
बचपन तो हमेशा नहीं रहता
लेकिन बचपन बरकरार रखा जा सकता है।
काली कढ़ाई
मेरे घर में एक काली कढ़ाई है
जो बना देती है हर सब्जी को जायकेदार
वो हमेशा से इतनी काली थी
या चढ़ गया रंग उस पे वक्त का
कुछ कह नहीं सकते
हां लेकिन ये पक्का है कि
अब उसे कितना भी मांजो, कितना भी रगड़ो
वो टस से मस नहीं होती
और वैसे ही काली रहती है
वो भी समझ गई है
दुनिया के तौर- तरीके
जान गई है खुद की कीमत
खुद के वजूद को और उसकी अहमियत को
हर कोई आपको अपने रंग में ढालना चाहता है
अपने मतलब के जैसे बनाना चाहता है
लेकिन जब आप निडर हो जाते हो
अपने खुद से खुद में संतुष्ट हो जाते हो
तो दुनिया भी छोड़ देती है
आपको बदलने की जिद
और हो लेती है आपके पीछे
खुद को बदलने को
होने को आपके जैसा ।
शालिनी अग्रवाल ‘सुकून’ एक नई और बहुकोणीय दृष्टि की कवयित्री हैं। आप जयपुर में रहती हैं। कागज पर कविता और कैनवास पर चित्रों के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करती हैं। साहित्य और कला में निरन्तर नया कुछ रचने को प्रयत्नशील विभिन्न संचार माध्यमों से अपने पाठकों और दर्शकों तक पहुंचती रहती हैं।