इंजी. आशा शर्मा
“क्या हुआ दोस्त… आज चुप क्यों हो… कल तक तो बहुत कू-कू कर रही थी…” फिरकू कौवे ने सलोनी कोयल से पूछा.
“क्या तुम्हें मेंढकों का टर्राना सुनाई नहीं दे रहा? बारिश का मौसम शुरू हो चुका है… अब दादुर वक्ता भये… हमको पूछत कौन?” सलोनी ने ठंडी साँस भरते हुए कहा.
“तुम क्यों उदास होती हो सलोनी, तुम्हारी मीठी तान तो सदा ही सुहानी लगती है… वो तो हम ही कर्कश हैं जो हमेशा दुत्कार कर उड़ा दिए जाते हैं.” फिरकू ने कहा.
“लेकिन तुम्हें भी तो श्राद्पक्ष में कितना सम्मान मिलता है.” सलोनी ने उसे कहा.
“आहा… श्राद्पक्ष में पूरे सोलह दिन मनुहार के साथ पकवानों का भोज मिलेगा…” सलोनी की बात सुनते ही उसके मन में लड्डू फूटने लगे.
“लेकिन सिर्फ सोलह दिन ही क्यों? क्यों न पूरे साल ही पकवान उड़ाए जायें…” सोचकर दो दिन बाद फिरकू ने कौवों की सभा बुलाई.
“भाइयों! मनुष्य यूँ तो हमें मुंडेर तक पर बैठने नहीं देता लेकिन श्रादपक्ष आते ही हमारी मिन्नतें करने लगता है… हमें बुला-बुला कर छप्पन भोग खिलाता है…” फिरकू ने कहा.
“तो क्या हुआ? चाहे सोलह दिन ही सही, हमें सम्मान तो देता है ना…” चीनी कौवे को फिरकू की बात अच्छी नहीं लगी.
“नहीं! हमें सिर्फ सोलह दिन नहीं बल्कि पूरे साल ये सम्मान चाहिए.” फिरकू जोश में था.
“मगर कैसे?” इस बार मुखिया ने पूछा.
“क्यों न हम इस बार श्रादपक्ष के समय हड़ताल पर चले जायें… जैसे मनुष्य अपनी मांगे मनवाने के लिए “पेनडाउन” या “टूलडाउन” हड़ताल करता है, हम भी “चोंचडाउन” हड़ताल करें. फिरकू ने सुझाव दिया.
“उससे क्या होगा? क्या मनुष्य हमारी मांगे मान लेंगे?” चीनी अब भी जम्हाई ले रहा था.
“क्यों नहीं! श्रादपक्ष में मनुष्य को हमारी आवश्यकता पड़ती है… वे जरुर मानेंगे…” फिरकू ने जोर देकर कहा तो मुखिया ने हड़ताल करने की हाँ भर ली. अब सब कौवों को बड़ी बेसब्री से श्रादपक्ष का इंतज़ार था.
आज पूर्णिमा का पहला श्राद है. सुबह से ही घरों में से पकवानों की खुशबू आने लगी थी. थोड़ी ही देर में लोग थालियाँ सजा कर कौवों को आग्रहपूर्वक बुलाने लगे मगर कौवे तो चोंच हड़ताल पर बैठे थे. फिरकू घूम-घूम कर हड़ताल का जायजा ले रहा था कि कहीं कोई खाने के लालच में तो नहीं आ रहा…
शाम हो चली थी. छतों पर रखा खाना ज्यौं का त्यौं पड़ा था. लोगों ने जब देखा कि आज कौवे गायब हैं तो उन्होंने चुपचाप खाने की थालियाँ उठाई और झुग्गी बस्ती में जाकर जरुरतमन्द लोगों में बाँट आये.
दूसरे-तीसरे दिन भी यही हुआ. इसी दौरान उड़ते-उड़ते फिरकू ने कुछ लोगों को आपस मे चर्चा करते सुना तो अपने कान उधर ही लगा दिए.
“लगता है कौवों का दिमाग ख़राब हो गया है.” एक ने कहा.
“शायद ये मौके का फायदा उठाना चाह रहे हैं मगर भूल रहे हैं कि सही पात्र को भी सम्मान हासिल करने के लिए उचित समय का इंतजार करना पड़ता है.” दूसरे ने कहा.
अब कोवे निराश होने लगे थे. मुखिया ने फिर से सभा बुलाई. सब फिरकू को खा जाने वाली नजरों से देख रहे थे. चोंचडाउन हड़ताल विफल हो गई. मुखिया ने सर्वसम्मति से सबको श्राद खाने की इजाज़त दे दी. चौथे दिन जैसे ही घरों की छतों, छज्जों और मुंडेरों पर थालियाँ सजने लगी, चीनी अपने साथियों के साथ दावत
उड़ाने पहुँच गया. उसकी देखादेखी बाकी कौवे भी निकल आये तो मजबूरी में फिरकू को भी उनका साथ देना पड़ा. मनुष्यों ने भी अपनी ख़ुशी जाहिर की.
श्रादपक्ष समाप्त हो गया, कौवा बिरादरी अब सुस्ता रही थी. सब कौवों की जुबान पर सिर्फ पकवानों के नाम और उनके स्वाद की ही चर्चा थी. फिरकू अब भी मुँह लटकाए बैठा था.
“फिरकू! सिर्फ हड़ताल करने से ही मांगे पूरी हो जायें ये हर बार जरुरी नहीं होता… मांगे तभी पूरी होती हैं जब वे जायज हों… और रही सम्मान की बात… तो सम्मान या आदर कभी भी मांगने से नहीं मिलता… उसके लिए अपनेआप को उसके योग्य बनाना पड़ता है…” मुखिया ने फिरकू को समझाया.
“अरे भई! ये क्या कम गर्व की बात है कि मनुष्य के जीवन में हमारा इतना महत्त्वपूर्ण स्थान है… चाहे श्रादपक्ष के सोलह दिन ही सही, वह हमें पूजता तो है… बाकी पक्षियों को कहाँ ये सम्मान मिलता है…’ चीनी के अपनी बात कही.
“तुम लोग सही कह रहे हो. मैं ही लालच में आ गया था, ज्यादा के चक्कर में जो मिल रहा था उसे भी खोने चला था. फिरकू ने अपनी गलती स्वीकार कर ली.
सभी ने काँव-काँव करके अपनी ख़ुशी जाहिर की तो फिरकू भी मुस्कुरा दिया.
इंजी. आशा शर्मा
A- 123, करणी नगर (लालगढ़)