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Friday, September 20

सिर्फ़ विलेन नहीं, अमरीश पुरी ‘हर रोल में राइट’ क्योंकि ‘डॉन्ग कभी रॉन्ग नहीं होता’

अभिनव टाइम्स| बड़ी सी एक गुफा के भीतर किसी तांत्रिक का दरबार सजा हुआ है. मां काली के आदम-क़द बुत के सामने आग की दहकती खाई बनी है. तांत्रिक के दरबारियों ने ढोल-नगाड़े बजाकर, मंत्र वग़ैरा पढ़कर एक अजब माहौल बनाया हुआ है. इस गुफा के एक मुहाने पर तीन फिरंगी (विदेशी) शक्लें इस मंज़र को देख रही हैं. इनमें एक बच्चा है. कि तभी देवी काली के बुत के पीछे से एक तांत्रिक सामने आता है. सिर पर दो सफ़ेद सींग, काला चोगा, खूनी लाल पटका, बड़ी-बड़ी गोल आंखें, सख़्त चेहरा. तांत्रिक आग की खाई का मुआयना करता है. इसके दूसरी तरफ़ कुछ लोग घुटनों और हाथ के बल जानवर की मानिंद बैठे हैं. एक बच्चा घुटनों के बल बैठकर तांत्रिक के सामने कुछ पेश-ए-नज़र करता है कि तभी तांत्रिक के चेहरे पर कोई आवाज़ सुनकर मुस्कुराहट तैर जाती है.

तांत्रिक के आदमी किसी लाचार शख़्स को बांधकर लाए हैं. वह चीख रहा है, ‘कोई मुझे बचाओ, कोई मुझे बचाओ.’ लेकिन कोई नहीं सुनता उसकी. उसे उन लोगों ने देवी काली के बुत के सामने ला खड़ा किया है. लकड़ी का एक पिंजरा ऊपर से उतरता है और उस शख़्स को उसमें बांध दिया गया है. तांत्रिक धीरे-धीरे उस शख़्स के नज़दीक आता है. डर से कांपता वह शख़्स अब ‘ओम नम: शिवाय’ का जाप कर रहा है. गोया कि शिव ही उसे बचा लें लेकिन नहीं. तांत्रिक उसके नज़दीक आकर डरावने लहज़े में उससे कह रहा है, गालों को छूते हुए… ‘बलि चढ़ोगे. बलि मांगती काली मां. मुक्ति देगी काली मां.’ हाथ ऊपर उठता है तांत्रिक का. ‘काली मां… काली मां शक्ति दे’, कहते हुए धीरे-धीरे उस बंधे हुए शख़्स की छाती तक पहुंचता है उसका हाथ. उंगलियां छाती में धंसती जाती हैं उसकी और कुछ ही पलों में उसका दिल निकालकर बाहर आ जाती हैं.

उसका दिल हाथ में लेकर तांत्रिक आवाज़ें कर रहा है, ‘अब इसकी जान मेरी मुट्‌ठी में है… अब इसकी जान मेरी मुट्‌ठी में है.’ गुफा के मुहाने पर मौज़ूद फिरंगियों की रूह कांप गई है. घबराकर वे पीछे हट रहे हैं. तांत्रिक के सामने घुटनों पर बैठे लोग खड़े हो गए हैं. चीख-चिल्ला रहे हैं. पीछे से लकड़ी के जाल में बंधे शख़्स को आगे लाया जा रहा है. उसे धीरे-धीरे धधकती खाई में उतारा जा रहा है. तांत्रिक उसका दिल हाथ में लिए जोर-जोर से कह रहा है, ‘बलि चढ़ा दो, बलि चढ़ा दो.’ उसकी आंखें बड़ी से और बड़ी होती जाती हैं. कुछ ही पलों के भीतर खाई में नीचे जाता शख़्स ज़िंदा जलने लगता है. इधर, तांत्रिक के हाथ में मौज़ूद उसका दिल धधक रहा है. तांत्रिक जोर के ठहाके लगा रहा है, उसे देखकर. मरते आदमी की चीखों को पीछे छोड़ देने वाले ठहाके.

दिलों को दहला देने वाला यह मंज़र ‘इंडियाना जोंस एंड द टेंपल ऑफ डूम’ नाम की फिल्म का है. हिन्दुस्तान में ठगों से जुड़े पेचीदा मसले पर बनी अंग्रेजी फिल्म. साल 1984 में आई थी. हॉलीवुड के मशहूर डायरेक्टर स्टीवन स्पीलबर्ग ने बनाई थी. उन्हें इस फिल्म में ‘तांत्रिक मोला राम’ के किरदार के लिए एक अदद हिन्दुस्तानी अदाकार की जब ज़रूरत महसूस हुई, तो उनकी निगाह पहले और आख़िरी तौर पर बस एक ही शख़्स पर जा टिकी. अमरीश लाल पुरी, जिन्हें हिन्दी फिल्मों की दुनिया में अमरीश पुरी के नाम से जानते लोग. कोई उन्हें ‘मोगैम्बो’ (मिस्टर इंडिया-1987) की तरह भी याद कर जब-तब उनका डायलॉग दोहराया करता है, ‘मोगैम्बो ख़ुश हुआ.’ और कोई-कोई ‘जनरल डॉन्ग’ (तहलका-1992) की तरह याद कर के कहा करता है, ‘डॉन्ग कभी रॉन्ग नहीं होता.’ और सच में, अमरीश पुरी बतौर अदाकार कभी रॉन्ग साबित नहीं हुए.

हालांकि वक़्त लगा उन्हें पूरी तरह ‘राइट’ साबित होने में भी. पंजाब के नवांशहर में 22 जून 1932 को पैदाइश हुई अमरीश पुरी की. लाला निहाल चंद और बीबी वेद कौर की छांव तले. शिमला, हिमाचल के बीएम कॉलेज से जब तक अपनी पढ़ाई पूरी की, तब तक दो बड़े भाई- चमन पुरी और मदन पुरी हिन्दी फिल्मों में पहचान बना चुके थे. सो, इन्होंने भी मंसूबा बांधा, फिल्मों में उतरने का और चल दिए बंबई. लेकिन बड़े भाइयों ने साफ़ कह दिया, ‘बरख़ुरदार, जो करना है, अपने बलबूते करना होगा.’ इन्होंने भी उनकी बात गांठ बांध ली और निकल पड़े बंबई की गलियों में फिल्मिस्तानों के चक्कर लगाने. लेकिन हर जगह से ख़ारिज़ कर दिए जाते. कोई कह देता, ‘चेहरा बड़ा सख़्त है, नहीं चलेगा.’ तो कोई कहता, ‘आवाज़ कुछ ज़्यादा ही भारी और लरज़दार है.’ कोई-कोई तो बड़ी ‘बटन सी आंखों’ पर ही फ़िक़रे कस दिया करता. मगर नादान थे वे लोग शायद.

इधर, शुरुआती नाकामियों से जूझते अमरीश पुरी को कुछ न सूझा तो ख़र्च चलाने के लिए एक नौकरी कर ली. कर्मचारी राज्य बीमा निगम में. ये बात है 1953-54 की. अब नौकरी के साथ-साथ फिल्मिस्तानों के चक्कर लगाया करते. लेकिन बात बन नहीं रही थी कि तभी किसी ने मशविरा दिया, ‘थिएटर क्यों नहीं करते. फिल्मों तक पहुंचने का ज़रिया बन सकता है.’ मशविरा जंच गया उन्हें ये और कपूर ख़ानदान के मशहूर ‘पृथ्वी थिएटर’ के साथ जुड़ गए. वहां सत्यदेव दुबे जैसे ड्रामा डायरेक्टर के साथ काम करने लगे. यहां से धीरे-धीरे उनकी अदाकारी ने सुर्ख़ियां बटोरीं और वह वक़्त भी आ गया, जिसकी तलाश में बंबई आए थे. फिल्मों में काम करने का. जिस पहली फिल्म में अमरीश साहब नज़र आए उसका नाम था, ‘प्रेम पुजारी’, 1970 में आई. इसमें बड़े भाई मदन पुरी भी साथ में थे. हालांकि अमरीश पुरी की असल शुरुआत हुई इसके एक साल बाद यानी 1971 की फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ से. रहमत खान का किरदार निभाया था इसमें.

इस वक़्त तक अमरीश साहब की उम्र 39 साल हो चली थी. नौकरी में यही कोई 20 साल का वक़्त गुज़र गया था. उसमें तरक़्क़ी भी हो चुकी थी. लेकिन फिल्मों का सफ़र शुरू हुआ तो झटके में नौकरी को अलविदा कह दिया. बड़ा जोख़िम लिया लेकिन उन्हीं का मशहूर डायलॉग फिर… ‘डॉन्ग कभी रॉन्ग नहीं होता.’ सो, उनका यह फ़ैसला भी ‘राइट’ साबित हुआ. इसके बाद वे मुख़्तलिफ़ किरदारों में कई फिल्मों में दिखे. मसलन- निशांत (1975), मंथन (1976), भूमिका (1977), वग़ैरा. लेकिन 1980 में जब ‘हम पांच’ आई तो उसके खलनायक ठाकुर वीर प्रताप सिंह (अमरीश) फिल्म के तमाम नायकों पर भारी पड़े. इसके बाद सुभाष घई की एक के बाद एक आई तीन फिल्मों (‘विधाता’-1982, ‘शक्ति’-1982 और ‘हीरो’-1983) ने अमरीश पुरी को बना दिया फिल्मों का पक्का खलनायक. हालांकि ‘मोगैम्बो खुश हुआ’ 1987 से, जब ‘मिस्टर इंडिया’ आई.

लेकिन अमरीश पुरी को सिर्फ़ खलनायक के तौर पर बांध दिया जाए तो ये उनकी अदाकारी, उनके फ़न के साथ इंसाफ़ नहीं हो सकता. वितान (फैलाव) बहुत बड़ा है उनका. इसे समझने के लिए साल 1997 में आई फिल्म ‘परदेस’ के किशोरीलाल को याद कीजिए. फ़ख़्र से गाना गा रहे हैं, ‘ये दुनिया एक दुल्हन, दुल्हन के माथे की बिंदिया, ये मेरा इंडिया.’ ये किशोरीलाल वही हैं, अमरीश पुरी, जो कई फिल्मों में इसी इंडिया के ख़िलाफ़ साज़िशें करते नज़र आते रहे. मगर मज़ाल कि उनके उन किरदारों की ज़रा सी भी छाप इस नए पर दिखती हो. इसी तरह, इससे थोड़ा पहले 1995 में आई फिल्म ‘दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे’ के सख़्त मिज़ाज ‘बाऊजी’ बलदेव सिंह को भी अब तक शायद ही कोई भूला हो. ये भी वही हैं, अमरीश पुरी. फिल्म की पूरी कहानी में वे एक अदद हिन्दुस्तानी बाप की तरह समाजी दायरे के भीतर ख़ुद को, अपने बच्चों को बांधकर रखने की कोशिश करते हैं. पर आख़िर में बेटी की मोहब्बत में वही फ़ल्सफ़ा-दां (दार्शनिक) हो जाते हैं. अब तक थामा हुआ बेटी का हाथ छोड़ते हुए कहते हैं, ‘जा सिमरन जी ले अपनी ज़िंदगी.’

इसी तरह ‘यतीम’ (1988) फिल्म के ख़ूख़्वार डाकू पुरखिया को ज़ेहन में रखे. साथ ही, दस साल बाद यानी 1998 में आई ‘चाइना गेट’ के कर्नल केवल कृष्ण पुरी को भी, जो सेना से रिटायरमेंट के बाद भी ख़तरनाक डाकू जगीरा से लड़ने मोर्चे पर चले आते हैं. साल 1991 की फिल्म ‘फूल और कांटे’ के डॉन नागेश्वर तो दोहरी शख़्सियत वाले हैं, दुनिया के लिए डॉन लेकिन अपनी संतान के लिए लाचार बाप. रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ में बापू के सहयोगी दक्षिण अफ्रीकी कारोबारी दादा अब्दुल्ला हाजी, कॉमेडी फिल्म ‘चाची-420’ (1997) के दुर्गाप्रसाद भारद्वाज और नगीना (1986) के बाबा भैरोंनाथ. गिनने बैठें तो ऐसे कितने ही यादगार किरदार हैं, जिन्होंने अमरीश साहब की फ़नकारी के दायरे में जगह पाई है. हिन्दी के अलावा पंजाबी, मलयालम, तेलुगु, तमिल, कन्नड़, जैसी ज़बानों में भी. बताते हैं, 32 सालों के फिल्मी सफ़र में 450 के क़रीब फिल्में समेटी उन्होंने अपने दायरे के भीतर. इसके बाद 12 जनवरी 2005 को दुनिया से विदा हो गए.

इन अमरीश पुरी के साथ काम कर चुके रज़ा मुराद ने एक बार कहा था, ‘जैसे एक अमिताभ बच्चन हुए, वैसे ही एक अमरीश पुरी हैं.’ ग़लत नहीं कहा उन्होंने

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