– संजय आचार्य वरुण
शनिवार का दिन भारतीय लोकतंत्र के नाम रहा। तीन राज्यों में तीन चुनावों के परिणाम घोषित हुए। कर्नाटक में प्रदेश की जनता ने देश में दिखाई दे रही ‘मोदी लहर’ के विपरीत जनादेश देकर ‘जनता जनार्दन सर्वोपरि’ की उक्ति को एक बार फिर सही साबित कर दिया है।
पंजाब में जालंधर में हुए उप चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत ने यह संदेश दिया है कि पंजाब में भगवंत मान के नेतृत्व में ‘आप’ का सत्ता में आना कोई अनायास हुई घटना नहीं थी, और इस परिणाम से कहीं न कहीं यह निष्कर्ष भी निकलता है कि प्रदेश की जनता आम आदमी पार्टी से संतुष्ट है और भगवंत मान जनता की नजर में एक योग्य मुख्यमंत्री मान लिए गए हैं।
शनिवार को तीसरा परिणाम था उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनावों का, ये परिणाम भी काफी हद तक चौंकाने वाले रहे। यहां भारतीय जनता पार्टी के प्रति लोगों ने गहरा विश्वास जताया है। उत्तर प्रदेश के कुल 17 नगर निगमों में सभी सीटों पर कमल खिल गया है। ये चुनाव परिणाम समाजवादी पार्टी और बसपा के लिए लिए विशेष रूप से गहरा और गंभीर आत्मचिंतन करने का अवसर है। प्रदेश की राजनीति में गहरी जड़ें रखने वाली इन दोनों पार्टियों को जनता द्वारा इस तरह से नकार दिया जाना, इनके लिए अच्छा संकेत नहीं है।
कुल मिलाकर शनिवार का दिन देश की तीनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस, भाजपा और आप के लिए उत्साहवर्धन करने वाला रहा। कर्नाटक में जीत पर कांग्रेस के प्रथम पंक्ति के नेतृत्व ने जली- कटी अभिमान युक्त भाषा बोली, आप प्रमुख केजरीवाल ने भी लगभग वैसे ही विचार व्यक्त किए लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस मामले में भी नंबर ले गए। उन्होंने ट्वीट करके सहृदयता से कांग्रेस को बधाई देकर अपने परिपक्व व्यक्तित्व से एक बार फिर प्रभावित किया।
हार- जीत, खेलों की ही तरह चुनावी राजनीति की भी एक सामान्य प्रक्रिया है। कोई भी एक परिणाम किसी भी राजनीतिक दल का भविष्य स्पष्ट नहीं कर सकता। हमारे नेता अनुभवी होने के बावजूद इस बात को समझ नहीं पाते और एक चुनाव के नतीजों को देखकर बिना सोचे- समझे बड़बोलापन करने लगते हैं। उनकी हवा तब निकल जाती है जब अगले किसी चुनाव का परिणाम पिछले से उल्टा आता है।
इसलिए महज एक -आध जीत के आधार पर बढ़- चढ़कर अति आत्मविश्वास नहीं दिखाना चाहिए।
भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी विशेषता उसकी शालीनता रही है लेकिन पिछले कुछ समय से इसमें गिरावट देखी जा रही है। राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी को शत्रु मानने का नजरिया कुछ टुच्चे देशों में पाया जाता है जो आजकल हमारे यहां के कुछ नेताओ द्वारा भी आयात किया जाने लगा है।
अशिष्ट और अमर्यादित भाषा पाकिस्तान जैसे देशों में ही अच्छी लगती है। उसका अनुकरण हमारी परम्परा और संस्कृति के प्रतिकूल है। पिछले दिनों राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भारत के गृहमंत्री का नाम अपने एक भाषण में बहुत हल्के तरीके से ले रहे थे।
इसी भाषण की बातों पर उन्हीं की पार्टी के नेता सचिन पायलट ने कुछ गंभीर सवाल भी खड़े किए थे। विरोध का स्तर वैचारिक होना चाहिए व्यक्तिगत नहीं, क्योंकि आपका प्रतिद्वन्द्वी भी आप ही की तरह अपने देश के लिए काम कर रहा है, विचारधाराएं और पार्टियां अलग होने से गरिमाहीन भाषा का उपयोग करने की स्वतंत्रता नहीं मिल जाती।
बहरहाल, शनिवार को घोषित हुए विभिन्न चुनावों के परिणामों के बाद पहली बार कांग्रेस ने ईवीएम पर सवाल नहीं उठाए, वरना तो हर बार कांग्रेस द्वारा अपनी प्रत्येक पराजय का ठीकरा ईवीएम की विश्वसनीयता पर ही फोड़ा जाता है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बोम्मई ने शालीनता से जनादेश को स्वीकार किया और सरकार के मुखिया होने के नाते हार की जिम्मेदारी ली है।
सभी राजनीतिक दलों को हार अथवा जीत पर सहज रहना चाहिए क्योंकि राजनीति में एक जीत या एक हार कुछ भी तय नहीं करती। हमारा भारत एक गौरवशाली राष्ट्र है, राजनीति देश और उसकी अस्मिता से ऊपर नहीं होती। अटल जी ने कहा था कि कोई जीते, कोई हारे, सरकारें बने बिगड़े लेकिन ये देश रहना चाहिए, इसका लोकतंत्र रहना चाहिए।
प्रसन्नता का विषय है कि हमारे देश का आम मतदाता जागरूक और सावधान है, वह अपने अधिकार का अपने विवेक से उपयोग करता है। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए इससे बेहतर बात दूसरी नहीं हो सकती।