एक दिन
और दिनों-सा
आयु का एक बरस ले चला गया।
अज्ञेय
आज मेरा जन्मदिन है। एक बरस कम हुआ। हुआ होगा। मैं तो मानता हूँ सब में बँट गया।
यह कहने से क्या होता है?
थोड़ी-बहुत घबराहट तो हो ही रही है कि उम्र कम हो रही है। थोड़ी-बहुत नहीं बहुत ज़्यादा। काळजा मुँह को आ रहा है। आसपास बाजे बज रहे हैं – रंग उड़ रहे हैं – बधाइयाँ मिल रही हैं – लेकिन किस लिए?
ऐसा लग रहा है सती होने जा रहा हूँ। मुझे अफीम पिलाई जा रही है ताकि होश न रहे। लेकिन मुझे पूरा होश है। मुझे दिख रहा है मैं कम हो रहा हूँ। लिखता जा रहा हूँ कम होता जा रहा हूँ। पढ़ता जा रहा हूँ कम होता जा रहा हूँ। सोचता जा रहा हूँ कम होता जा रहा हूँ। कुछ न कुछ करता जा रहा हूँ कम होता जा रहा हूँ।
मैं इस काल के पहिये को एक क्षण के लिए रोक देना चाहता हूँ। पूरा दम लगाना चाहता हूँ। बात यह नहीं दम लगा नहीं सकता। बात यह है कि कोई है जो दम लगाने नहीं दे रहा।
यह मेरी ही समझदारी यह मेरा ही विवेक है।
लेकिन यह समझदारी और विवेक भी तो इस मज़बूरी से पैदा हुआ है कि समझदारी और विवेक का बँटता क्या है? हिम्मत है तो दम लगाकर दिखा।
अच्छा ओ सर्वशक्तिमान!
मुझे इन चक्करों में नहीं पड़ना। बस तू मुझे एक ठहरा हुआ क्षण दे। मुझे पता नहीं मैं उस क्षण का क्या करूंगा? लेकिन मुझे चाहिए। मैं दूसरी उपलब्धियाँ नहीं चाहता। आईएएस जज नेता वैज्ञानिक मैनेजर सीईओ नहीं बनना चाहता। एक क्षण के लिए सब कुछ स्थिर कर देने वाला कोई ‘अवयव’ बनना चाहता हूँ।
मैं यह ‘अवयव’ बनने के लिए प्रयोगशाला में चूहे नहीं काटूँगा। अंतरिक्ष में नहीं भटकूँगा। मंदिर में नारियल नहीं चढ़ाऊंगा। मस्जिद में धागा नहीं बाँधूँगा। मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगा ओ सर्वशक्तिमान जो कुछ ‘करने’ की श्रेणी में आता हो।
क्या यह ‘सत्ता’ बनना है?
तेरे बराबर आना है?
और तू ऐसा होने नहीं देगा?
जा! मत होने दे!
मैं कट्टी हूँ!
अच्छा क्षमा! तूने मुझे होने दिया यही बड़ी बात!