संजय आचार्य वरुण
हम सुबह उठकर बरामदे में बैठे हुए अखबार के साथ चाय का आनंद ले रहे थे। खुशनुमा मौसम और होली की छुट्टियों के कारण हमारा मन बहुत ज्यादा प्रसन्न हो रहा था लेकिन हमारी ये प्रसन्नता अधिक देर तक न चल सकी। हमने देखा कि हमारे एकतरफा विवादास्पद मित्र चकरमजी हमारे घर की तरफ ऐसे बढ़े चले आ रहे हैं जैसे कि दो साल पहले कोरोना दुनिया की ओर लपका था। थोड़ी देर पहले तक हमारे चेहरे पर छाई खुशी ऐसे कम होने लगी जैसे डॉलर के सामने रुपये के भाव कम होते जाते हैं।
बहरहाल, चकरमजी को तो हमें झेलना ही था। हम मानसिक रूप से तैयार हो पाते इससे पहले तो वे हमारे सामने वाली कुर्सी पर साक्षात सशरीर विराजमान हो गए। हमारी श्रीमती जी को अपने आगमन की (भयानक) सूचना देकर चाय आने का इंतजार करते हुए उन्होंने बिस्किट की पूरी प्लेट का दायित्व अपने हाथों में ले लिया और बिना किसी औपचारिकता के कहने लगे ‘मित्र, आज मैं तुमसे एक बहुत जरूरी परामर्श करने आया हूं।’ आज वास्तव में ऐसा लग भी रहा था चकरम महोदय जरा गंभीर मूड में हैं। हमने उनसे पूछा कि आपकी चिंता का कारण क्या है?
हमारे प्रश्न से उनके चेहरे की भाव भंगिमाएं सख्त हो गई। वे कहने लगे ‘मित्र, वैसे तो हम पूरे शहर की नजर में एक नाकारा और निठल्ले किस्म के इंसान हैं लेकिन तुम जानते हो कि हम उच्च कोटि के बुद्धिमान और संवेदनशील व्यक्तित्व हैं, खैर फिलहाल हम बहुत दुखी हैं, इसलिए अपनी तारीफ खुद करने के मूड में जरा भी नहीं हैं।’ इतना कहकर वे दुख में डूबे हुए प्लेट में पड़े बिस्किट जल्दी -जल्दी खाने लगे। हमने चकरमजी की पीड़ा जानने की कोशिश की।
अंतिम बिस्किट को चाय के इंतजार में सूखा ही गले से उतारते हुए बोले ‘मित्र, हम बीकानेर के कोटगेट की ट्रैफिक व्यवस्था को लेकर इतने परेशान हैं कि पिछले तीन दिन से हर रात को नींद हमसे अपना समर्थन वापस ले लेती है। हमने इस शहर की गलियों में आवारागर्दी करते हुए अपने जीवन के पैंतालीस फागुन देख लिए हैं मगर आज तक शहर के बीचोंबीच बने रेल फाटकों की समस्या का समाधान हमारी शादी की तरह ही अब तक नहीं हुआ।
इसी बीच सरकारी योजनाओं के अनुदान की तरह बहुत देर से हमारी श्रीमती जी ने चाय प्रस्तुत की। चाय को सुड़कते हुए चकरमजी की आत्मा फिर से कोटगेट पर मंडराने लगी। वे बोले मित्र, माना कि प्रशासन ट्रैफिक व्यवस्था सुधारना चाहता है, प्रयास भी हुए हैं लेकिन लोगों को इधर- उधर घुमाकर निकालना समस्या का हल नहीं है।’ जीवन में आज पहली बार हमें लगा कि भगवान ने इस जीव के साथ पूरा अन्याय तो नहीं किया है, इसे भी कुछ प्रतिशत अक्ल तो मिली है। हमने चकरमजी से कहा कि आपकी नजर में कोटगेट के हालात को कैसे सुधारा जा सकता है?’
हमारा सवाल सुनकर चकरमजी को जीवन में पहली बार लगा कि उन्हें आज गंभीरता से लिया जा रहा है, वे तुरन्त ठुड्डी पर हाथ रखकर डॉ. नंदकिशोर आचार्य जैसी भाव मुद्रा में आ गए और बोले ‘मित्र, हमारी तुच्छ समझ से कोटगेट को चमन बनाने की दिशा में दो काम किए जा सकते हैं। पहला तो ये यहां अतिक्रमण करने वाले लोगों की सोयी हुई चेतना को झिंझोड़ा जाए और दूसरा जिन लोगों ने अनावश्यक ही कोटगेट अंडर ब्रिज का विरोध करने को अपने जीवन का लक्ष्य बना रखा है, उन्हें किसी योग्य मनोचिकित्सक को दिखाया जाए।
बंधु, कोटगेट रेलवे क्रॉसिंग की पहेली वे हल नहीं होने देना चाहते जो खुद तीन महीने में एक बार भी कोटगेट पार नहीं करते।
बीकानेर की पहचान कहे जाने वाला कोटगेट यदि आज जीवंत होकर चकरमजी की बातें सुन लेता तो शायद अपनी दुर्दशा पर फफक पड़ता। चकरमजी अब दुख की चरम अवस्था में पहुंच गए थे, कहने लगे मित्र, ‘छोटे बड़े चार -चार मंत्रियों वाले शहर की यह ऐतिहासिक पहचान कोटगेट आज निराश्रित सा खड़ा कई दशकों से वादों की चूसनी चूस रहा है.. वह अपने हालात पर बोल नहीं सकता।
इतना कहकर चकरमजी उठे और यह कहते हुए चले गए कि यदि विधाता ने मेरे भाग्य में शादी लिखी होगी तो कोटगेट के भाग्य में ब्रिज भी जरूर लिखा होगा।