संगीतकार गुलाम मोहम्मद की दास्तान
यह भी अजीब संयोग ही है। जिस तरह संगीतकार आर. डी. बर्मन फिल्म 1942 : ए लव स्टरी के संगीत की सफलता देखने के लिए जीवित नहीं रहे, बिल्कुल ऐसी ही स्थिति संगीतकार गुलाम मोहम्मद की भी रही। वे भी अपनी बड़ी फिल्म पाकीजा की सफलता देखने के लिए जिंदा नहीं थे। गुलाम मोहम्मद ऐसे संगीतकार थे, जो रहे तो गुमनाम पर उनकी धुनें लोगों की जुबान पर सदियों से चढ़ी हुई हैं। उनकी धुनों की मिठास वर्षो के बाद भी कम नहीं हुई है और वे आज भी नए संगीतकारों के लिए आदर्श हैं। फिल्म पाकीजा जब बन रही थी, तब गुलाम मोहम्मद उसका संगीत तैयार कर चुके थे। कुछ काम अभी बाकी था कि तभी वे चल बसे। वे किस्मत के धनी नहीं थे। आर. डी. बर्मन ने तो कई बार सफलता का स्वाद चख लिया था अपने करियर में, लेकिन गुलाम मोहम्मद के नसीब में ऐसा नहीं लिखा था। वे गुमनाम रहे, और जब उनका काम दुनिया में ख्याति पाने वाला हुआ, तो वे चले गए। जिंदगी उनसे रूठ गई।
गुलाम मोहम्मद की पहचान नौशाद के सहायक केरूप में ही थी। वे बीकानेर के थे। राजस्थानी लोक-संगीत सुनते हुए वे बडे़ हुए थे। उनकी परवरिश भी ऐसे ही माहौल में हुई थी, जहां संगीत फैला था। पाकीजा का गीत ठाड़े रहियो। मूल रूप से राजस्थानी मांड पर आधारित था, जो यह बताता है कि उनमें लोक संगीत कितना बसा था।
खैर, गुलाम मोहम्मद की शिक्षा नाममात्र की हुई थी। एक नाटक कंपनी के साथ रहते थे और जो भी काम मिल जाता, उसे करते थे। जो भी वाद्य मिल जाता, उसे बजाने लगते। जरूरत पड़ने पर मेकअप करने भी खड़े हो जाते थे। फिर मूक फिल्मों में उनका प्रवेश हुआ, वे तबला, ढोलक, पखावज, खंजरी जैसे चर्मवाद्य बजाने में कुशल थे। जब फिल्में बोलने लगीं, तो बतौर वादक गुलाम मोहम्मद को काम मिलने लगा।
1943 में आई फिल्म मेरा ख्वाब से वे संगीतकार बने। इस फिल्म में नजमा की दादी जेबुन्निसा, जो राम और श्याम फिल्म में प्राण की मां बनीं थी, वे उसमें हीरोइन थीं। इसके पांच साल बाद आई फिल्म काजल से उनका नाम हुआ। उसी साल प्रदर्शित गृहस्थी और पगड़ी भी सफल रही। सुरैया की आवाज वाला काजल का गीत “दिन पे दिन बीते जाएं” मुकेश का गाया गीत गृहस्थी का “तेरे नाज उठाने को जी चाहता है” और मुकेश और सितारा कानपुरी की आवाज वाला पगड़ी का गीत “इस तीर चलाने वाले ने दिल” तब बड़े मशहूर हुए। दूसरे ही साल नौशाद की दिल्लगी, अंदाज और दुलारी, सी. रामचंद्र की पतंगा शंकर-जयकिशन की बरसात, हुस्नलाल-भगतराम की बड़ी बहन में जबरदस्त स्पर्धा होने के बावजूद गुलाम मोहम्मद की शायर पीछे नहीं रही।
इसके गीत दो बिछड़े हुए.(लता-जी. एम. दुर्रानी) और ये दुनिया है.(लता-मुकेश) खूब मशहूर हुए। इसके बाद पारस का “दिल की लगी ने हमको”(रफी), परदेस का “किस्मत बनाने वाले जरा”(लता), शीशा का “खुशी दिल से हंसी होठों से”(लता), गौहर का “आवाज दे रहा है कोई” (सुधा मल्होत्रा), लैला मजनूं का “चल दिया कारवां”(तलत महमूद), कुंदन का “शिकायत क्या करूं”(लता), शमा का “धड़कते दिल की तमन्ना”(सुरैया) जैसी कुछ फिल्मों के गाने लोकप्रिय हुए, लेकिन इसके बावजूद गुलाम मोहम्मद अगली पंक्ति के संगीतकार नहीं बन पाए।
तीस वर्षो के करियर में एक तमिल और एक भोजपुरी फिल्म को मिलाकर उन्होंने कुल पैंतीस फिल्मों में संगीत दिया। वे नौशाद के सहायक के रूप में ही ज्यादा मशहूर हुए, जबकि वे नौशाद से बारह साल बड़े थे। कहा जाता है कि गुलाम मोहम्मद ही नौशाद को उस्ताद झंडे खां के पास ले गए थे। झंडे खां ने गुलाम मोहम्मद के छोटे भाई मोहम्मद इब्राहीम की जगह नौशाद को आर्गन बजाने के लिए नियुक्त किया था। संयोग से आगे चलकर गुलाम मोहम्मद नौशाद के ही दाहिने हाथ बने रहे। गुलाम मोहम्मद की जगह बाद में मोहम्मद इब्राहीम ने ले ली। नौशाद के सहायक बदलते रहे और उसी के अनुसार उनके ऑर्केस्ट्रा में भी बदलाव आया। गुलाम मोहम्मद, मोहम्मद इब्राहीम और मोहम्मद शफी, तीन सहायक थे नौशाद के और संगीत के भी तीन दौर.। लता मंगेशकर ने एक बार यह बात कही थी।
नौशाद की कुछ धुनें गुलाम मोहम्मद की हो सकती हैं, लेकिन किसी भी सहायक को इसका श्रेय कभी नहीं मिलता, गुलाम मोहम्मद को भी नहीं मिला। दूसरे सहायकों की तरह उन धुनों का श्रेय लेने की गुलाम मोहम्मद ने कभी कोशिश भी नहीं की। नौशाद का बड़प्पन था कि उन्होंने मन-ही-मन स्वीकार कर लिया था कि अंदाज में लता द्वारा गाया गीत तोड़ दिया दिल मेरा. और गुलाम मोहम्मद की पारस के गाने दिल ले के छुपने वाले. में समानता छिप नहीं पाती।
गुलाम मोहम्मद के सन 1950 में आई फिल्म परदेस के गीत “किस्मत बनाने वाले जरा सामने तो आ” की धुन की छाप 1957 में आई नौशाद की धुन “ओ जाने वालों जाओ न घर अपना छोड़ के” जो मदर इंडिया का गाना था, में दिखती है। गुलाम मोहम्मद का संगीत अगर कोई भूलने लगे, तब भी मिर्जा गालिब और पाकीजा को कोई चाहकर भी नहीं भूल सकता। गालिब की कलम से निकले मोतियों को गुलाम मोहम्मद ने बड़ी खूबसूरती से अपने संगीत में पिरोकर एक माला का रूप दिया।
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया इश्क मुझको न सही, आह को चाहिए एक उम्र, ये न थी हमारी किस्मत, रहिए अब ऐसी जगह, नुक्ताची है गमे दिल, दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है, जैसे मधुर गीतों को भला कैसे भुलाया जा सकता है? दूसरी ओर पाकीजा का भी संगीत लोगों को ठहरने के लिए बेबस करता है। इस फिल्म के गीतों में तो उन्होंने जान डाल दी थी। गीत “यूं ही कोई मिल गया था सरे राह चलते-चलते” के उन्होंने 21 रीटेक किए थे। उन्हें मदहोशी भरे संगीत की गूंज बिखेरना था। आखिर में कमाल अमरोही के सामने सवाल खड़ा हो गया कि किसे छोड़ें किसे रखें? फिल्म के गीत ये किसी की आंख नूर (रफी), तनहाई सुनाया करती है (लता) और प्यारे बाबुल. तीनों गाने फिल्म से निकालने पड़े। जबकि अन्य गीतों ठाड़े रहियो., इन्हीं लोगों ने., यूं ही कोई मिल गया था., चलो दिलदार चलो., आज हम अपनी दुआओं., मौसम है आशिकाना. का फिल्मों में रखना तय हो गया था।
फिर कमाल अमरोही और मीना कुमारी के झगड़े की वजह से पाकीजा कई साल तक लटकी रही। इसी बीच गुलाम मोहम्मद की तबियत बिगड़ने लगी। ठाड़े रहियो. और इन्हीं लोगों ने. गीतों की रिहर्सल उन्होंने की थी, लेकिन रिकॉर्डिग के वक्त डॉक्टर ने उन्हें खड़े रहने की इजाजत नहीं दी। तब गुलाम मोहम्मद ने इन गानों को रिकॉर्ड करने के लिए नौशाद से विनती की, लेकिन वे खुद भी घर नहीं बैठे। कुर्सी पर बैठ कर उन्होंने रिकॉर्डिग पूरी की। गीत सुनकर उन्हें विश्वास हुआ था कि पाकीजा उनकी किस्मत जरूर बदलेगी। हुआ भी ऐसा ही पर बदली किस्मत को देखने के लिए वे रहे नहीं।
पाकीजा के जो गीत तय हुए थे, वे तो शूट हो गए, लेकिन कुछ सीन शूट करते समय कमाल अमरोही को कुछ ऐसे गीतों की जरूरत महसूस हुई, जिन्हें वे बैकग्राउंड में इस्तेमाल कर सकें। अब वे बात किससे करें। ऐसे वक्त में फिर वे नौशाद के पास गए। उन्हें बताया, तो कुछ धुन उन्होंने बनाए, जो बैकग्राउंड में बजे। राजकुमारी की आवाज में एक गीत उन्होंने नजरिया की मारी मरी मोरी गुइयां. रखा। दूसरा गीत परवीन सुल्ताना की आवाज में देख तो दिल के जां से उठता है ये धुआं सा कहां से उठता है. और तीसरा वाणी जयराम की आवाज में मोरा सैंया सौतन के घर जाए. रखा। इन गीतों से भी फिल्म में जान आई और सीन दमदार हुए। बरसात में हमसे मिले तुम. गाने के प्रसिद्ध ठेके के लिए शंकर-जयकिशन को गुलाम मोहम्मद की जरूरत थी। शंकर-जयकिशन ने रिकॉर्डिस्ट मीनू कात्रिक के जरिये गुलाम मोहम्मद तक पैगाम भिजवाया। किसी भी तरह की ना-नुकुर न करते हुए गुलाम मोहम्मद इस नई संगीतकार जोड़ी के पास बरसात की रिकॉर्डिग के लिए आ गए। कुछ मशहूर धुनें गुलाम मोहम्मद के खाते में इस तरह भी जमा हैं, जैसे अखियां मिला के जरा बात करो जी.(फिल्म -परदेस, आवाज लता-रफी), एक बेवफा को दिल का सहारा.(फिल्म- अजीब लड़की, आवाज लता-तलत महमूद), हम तुम ये बहार.(फिल्म-अंबर, आवाज लता-रफी), आसमां वाले तेरी दुनिया से. (फिल्म -लैला मजनूं, आवाज लता-तलत महमूद), जिंदगी देने वाले सुन. (फिल्म -दिले नादान, आवाज तलत महमूद), मन धीरे-धीरे गए रे. (फिल्म -मालिक, आवाज सुरैया-तलत), मोहब्बत की धुन. (फिल्म -दिले नादान, आवाज सुधा मल्होत्रा- जगजीत कौर -तलत) आदि।
राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फिल्म मिर्जा गालिब के संगीत को लेकर पंडित नेहरू ने उनकी खूब प्रशंसा की, तब गुलाम मोहम्मद खुश तो हुए, पर मन उनका खुश नहीं था। प्रशंसा सुनने की उनकी आदत खत्म हो गई थी। वे कमाल की धुनें तो बनाते थे, लेकिन वैसी यानी कमाल की चर्चा उन्हें उसके लिए नहीं मिलती थी। बस एक खुशी उन्हें यह जरूर मिली थी कि फिल्म मिर्जा गालिब के संगीत के लिए उन्हें संगीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। उनकी बेहतरीन फिल्म पाकीजा 1972 में रिलीज हुई थी। इसके बनने में काफी बाधाएं आई थीं और इसकी जड़ में मीना कुमारी और कमाल अमरोही के रिश्ते में आई कड़वाहट थी। वे इस फिल्म की रिलीज से चार साल पहले ही यानी 17 मार्च 1968 को अपने ही बनाई गीत की धुन चलो दिलदार चलो चांद के पार चलो. की तरह चांद के पार चले गए और छोड़ गए कुछ सुरीले गीत-संगीत.।
एक संगीतकार जो मुफलिसी में जिया और जीवन की सबसे बड़ी सफलता से पहले दुनिया छोड़ गया ”
‘पाकीजा’ की अपार सफलता इस फिल्म के संगीतकार गुलाम मुहम्मद देख न सके 18 मार्च, 1968 को उन्होंने दुनिया छोड़ दी और पाकीजा इसके चार वर्ष बाद रिलीज हुई पाकीजा का संगीत देते समय उनकी माली हालत अच्छी नहीं थी और वह हृदयरोग से ग्रस्त थे इस बीमारी का इलाज तो दूर, उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वह ईद धूमधाम से मना सकें विपन्नता ने उन्हें सुदूर बोरीवली रहने को मजबूर कर दिया था पाकीजा ने गुलाम मुहम्मद का नाम सबकी जुबान पर ला दिया पाकीजा में विशिष्ट और लोकप्रियता का वह दोहरा मुकाम गुलाम मुहम्मद ने पा लिया था जो हर संगीतकार का सपना होता है इस फिल्म का हर गीत, संगीत की दुनिया का एक अध्याय हो सकता है। मुजरे को इतनी पाकीजगी और दिलकश अंदाज में इससे पहले फिल्म संगीत में पेश नहीं किया गया था यमन पर आधारित ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा’ में लता की खनक और कहरवा चार मात्रा में तबले की गमक का द्वय अपने चरम पर था
मांड की अपनी परिचित राजस्थानी शैली में कंपोज किए गए ‘ठारे रहियो ओ बांके यार’ में स्वर की तड़प की खींचने वाली अनुगूंज थी। यमन कल्याण और भूपाली का सम्मिश्रण लिए ‘चलते-चलते, यूं ही कोई मिल गया था’ में पार्श्वसंगीत और आवाज की अप्रतिम जादूगरी का बेमिसाल सम्मिश्रण था तो ‘आज हम अपनी निगाहों का असर देखेंगे’ में रात का आतंक और प्यार की आजमाइश दोनों को गुलाम मुहम्मद के संगीत ने लता की आवाज में मूर्त कर दिया था। इन चारों धुनों के सामने ‘मौसम है आशिकाना’ साधारण धुन लगने लगती है क्योंकि पाकीजा का संगीत था ही इतना विराट पाकीजा के थीम संगीत के लिए गायक भूपेन्द्र ने बारह तंतु गिटार को सरोद की तरह बजाया था, यह तथ्य कम रोचक नहीं है पाकीजा के दो गानों को बीमार होने के कारण गुलाम मुहम्मद के आग्रह पर नौशाद ने रेकॉर्ड किया था इसलिए ‘चलते-चलते’ में नौशाद का प्रभाव परिलक्षित होता है वैसे पाकीजा का पार्श्व संगीत गुलाम मुहम्मद की मृत्यु हो जाने के कारण पूर्णत: नौशाद ने ही दिया और परवीन सुल्ताना, राजकुमारी आदि से बड़ी सुंदर ठुमरियां गवाईं, जैसे राजकुमारी के स्वर में ‘नजरिया की मारी’, वाणी जयराम के स्वर में ‘मोरा साजन सौतन घर जाए’ और परवीन सुल्ताना के स्वर में ‘कौन गली गयो श्याम।’ फिल्म के साउंड ट्रैक पर तो और भी कई बंदिशों और गजलों के अंश कोठों की पृष्ठभूमि में सुनाई पड़ते हैं जिनमें नसीम बानो चोपड़ा के स्वर में मीर की गजल, ‘देख तो दिल कि जां से उठता है’ लाजवाब थी। कायदे से तो इस विशिष्ट संगीत के लिए गुलाम मुहम्मद को मरणोपरांत फिल्म फेयर पुरस्कार दिया जाना चाहिए था पर फिल्म फेयर की दुनिया में राजनीति इस कदर हावी थी कि नामांकित होने के बाद भी पुरस्कार उन्हें नहीं मिला ..उन्हें उर्दू और हिंदी में छपने वाली एक मैगज़ीन शमा – सुषमा ने 11 मार्च को 1973 पाकीज़ा के लिए बेस्ट संगीतकार का अवार्ड देकर गुलाम मोहम्मद को सम्मान देने की कोशिश जरूर की थी
पाकीजा के ऊपर वर्णित गानों को हर कोई जानता है, इन पर चर्चा और इन गानों की वाहवाही भी खूब हो चुकी है। गुलाम मुहम्मद द्वारा कंपोज किए गए पाकीजा के उन गानों का भी जवाब नहीं जो फिल्म में शामिल नहीं हुए। इन गानों को ‘पाकीजा रंग-बिरंगी’ नाम से एक अलग रेकॉर्ड में एच.एम.वी. ने रिलीज किया था। ‘पी के चले हम हैं शराबी’ में लता की आवाज की कोमलता और तबले की ठमक के बीच गुलाम मुहम्मद ने जो ‘हार्मनी’ पैदा की वह अद्भुत है। लता की एकल आवाज में पहाड़ी पर कंपोज किया ‘चलो दिलदार चलो’ फिल्म में शामिल किए गए लता-रफी के युगल गीत से कहीं बेहतर बन पड़ा है। एकल गीत में प्रवाह, गति और तीव्रता का जो स्वाभाविक संगम है वह युगल गीत में थोड़ा निर्मित-सा लगता है। अन्य गीतों में ‘प्यारे बाबुल तुम्हारी दुहाई’ (लता) और ‘कोठे से लंबा हमारा बन्ना’ (शमशाद) पारंपरिक विवाह गीतों की धुनें हैं, ‘ये किसकी आंखों का नूर हो तुम’ (रफी) पारंपरिक मुशायरे की शैली का एक संगीतमय विस्तार है (खय्याम की कई रचनाओं में भी इस शैली का प्रयोग मिलता है), ‘जाएं तो अब कहां (रफी, शमशाद) कव्वाली शैली में है तो ‘बंधन बांधो न’ (शोभा गुर्टू) राग भूपाली पर आधारित शास्त्रीय रचना है।
सुमन की आवाज में पारंपरिक मुजरे को पुन: जीवंत करता ‘गिर गई रे मोरे माथे की बिंदिया’ अनूठी रचना है और सुमन के आवाज पर नियंत्रण और फैलाव दोनों को प्रकट करता है। इसी तरह ‘तन्हाई सुनाया करती है’ (लता) कविता की तरह नरम और छूने वाली रचना बन पड़ी है। यह निष्कर्ष अनुचित नहीं है कि पाकीजा के लिए गुलाम मुहम्मद ने अपनी क्षमता का बहुआयामी उपयोग किया और संगीत की हर विधा की बानगियां तलाशीं। यह दोहरे अफसोस का विषय है कि पाकीजा गुलाम मुहम्मद के जीवनकाल में न बन सकी और जब बनी तो इसमें कई खूबसूरत गीत शामिल न किए जा सके।
साभार – पंकज राग