ओम नागर, कोटा
पिता ने कभी नहीं पूछा
किस विषय में कितने नंबर लाया
कौनसी क़िताब कठिन है
कौनसी सरल से भी सरल
पिता को पढ़ना नहीं आता
लेकिन पास होने पर खुश होना आता था
इतना खुश
कि खेत से साँझ डूबते लौटते घर
सुबह का सूरज मेड़ पर खिलता
नहीं पूछा
किसी मास्टर जी का नाम पता
दाखिले के वक़्त
इतना भर कहा था
माटसाब
“माँस-माँस थांकौ
हाड-हाड म्हाका “
पिता ने माँ से भी पूछा नहीं कभी
कि यह छोरा पढ़ता कब है ? देखा नहीं
कांख में रेडियो दबायें फिरता हैं बस
पिता के सब सवालों के उत्तर जैसे
माँ के पास घड़ी कपड़ों की तहों में रखें हों
कहती- थां घरां रहै तोल तो पड़ै, थांकौ दिन तो
हमेस खेत की मेर आंथे-उगै छै…
पिता के पास
मुझ से पूछे जा सकने वाले सवालों से भी बड़े
बहुत बड़े सवाल और भी थे
पेट का सवाल
रोटी का सवाल
खाद,बीज, पाणी के सवाल तो थे हीं जस के तस
खेत अपना हो जितना-सा भी, फिर निपट पराया
उससे भी बड़ा सवाल बोहरा जी की जूनी बही से
सूद-मूल को जल्द से जल्द चुकता करने का था
लेकिन जब गणित की गणित
समझने-सुलझाने लगा थोड़ा-बहुत तो
एक बार पिता ने सवाल नहीं
सिर्फ़ कहा था अपने टपोरियों पर जेठ
बैशाख-आषाढ़ के कुछ बढ़े दिन गिनते
-“यां परची देख तो ओम प्रकास
म्हनै लागै छै दा’जी बोहरा जी नै
नागा जादा जोड़ल्या। “