सृष्टि का संविधान देता आदेश,
हमें मानना पड़ता है मजबूरन।
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जैसे राष्ट्र और संस्था में संविधान होता है वैसे ही होता है सृष्टि में संविधान। सृष्टि के संविधान ने हमेशा मौन रहकर अपने आदेश पारित किएँ है और हमें मानना पड़ता है मजबूरन ।
सम्पूर्ण चराचर जगत में देह की नश्वरता
सृष्टि के संविधान का प्रथम नियम है।
विदा होने वाला शख़्स मानवता के लिए कितना आवश्यक था ? या वो अपने क्षेत्र में ओर कितनी नवीन उपलब्धियाँ हासिल कर सकता था ?
इससे सृष्टि का संविधान नहीं मानता ये तो आदेश पारित करता है और हम सभी इस व्यवस्था पर आश्रित है।
सृष्टि का संविधान प्रत्येक आत्मा को देह और समय देकर भेजता है। आत्मा देह संग किस क्षेत्र में कितनी कीर्ति, यश, उपलब्धियाँ प्राप्त करती है अथवा नहीं कर पाती है ये आत्मा के क्रियाकलापों पर निर्भर करता है।
ऐसी ही एक जीवात्मा को सृष्टि के संविधान ने हम सभी के मध्य उतारा नाम रखा
:- श्रीलक्ष्मी नारायण रंगा ।
- एक साधारण से परिवार में जन्में रंगा ने कब कलम पकड़ी ? क्यों पकड़ी ?
- वो प्रथम कारण क्या रहें ? जिससे प्रेरित होकर श्रीरंगा ने सैकड़ों मीलों तक पृष्ठ के धरातल पर स्याही को बहाया ।
अंतस में उपजती भावनाओं को नित्त-नए शब्दों की शक़्ल में स्थूल संसार दिखाना, अनवरत लिखना कोई साधारण प्रकियाँ नहीं।
( निरन्तर लिखना समाधि से कम नहीं )
मैं यहाँ ये नहीं बताऊंगा कि ……
• श्रीरंगा ने अपनी जीवन-यात्रा में कौन-कौनसी संस्थान को अपने जीवन अनुभव से मार्गदर्शन दिया,
• कितने रंगमंचीय नाटकों में बेहतरीन लेखन से संवेदना को जीवंत कर पाएँ ?
• कहाँ रहें ? कब पलायन किया ?
• कितने पुरस्कारों से उन्हें नवाजा गया ?
• कितनी पुस्तकों का लोकार्पण हुआ ? कितनी अभी शेष है जो अपनी बारी का इंतजार कर रही है ?
क्योंकि इन विषयों पर तो बहुत कुछ लिखा जा चुका है,
लेखन में पुनरावृत्ति ना होने पाएँ,
ये भी एक नवाचार है ।
फिलहाल नवाचार में,
मैं अपने से जुड़ा एक वाक्या साझा करना चाहूँगा। सहसा कल शाम स्मृति में आया …..
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बात उन दिनों की है जब मेरी दोनों बच्चियाँ नालन्दा विधालय में अध्यनरत थी। एक दिन किसी पारिवारिक कार्यक्रम के चलते मैं बच्चियों को छुट्टी दिलवाने विधालय परिसर में पहुँचा। जहाँ लक्ष्मी नारायण जी प्रधानाचार्य कक्ष में बैठे थे।
मैं अचंभित हुआ …….
मेरे सामने वो थे जिनकी एक कहानी ने मेरे अंतस में गहरी छाप छोड़ दी थी
हमारे समय की दसवीं कक्षा की पुस्तक में श्रीरंगा द्वारा रचित “अमर शहीद ” का वो अध्याय अमर हो गया ।क्रांतिकारी सागरमल गोपा को श्रीरंगा ने लिखा नहीं ऐसा लगता है मानों उन्होंने गोपा को जिया है।
सागरमल गोपा के व्यक्तित्व और उनके जीवन संघर्ष पर लिखा ये अध्याय आगे जाकर साहित्य में मील का पत्थर साबित हुआ।
उन्होंने कहा :- बताईये ! कैसे आना हुआ ?
मैंने कहा:-
बच्चियों को लेने आया हूँ घर पर पारिवारिक कार्यक्रम है। मेरा पारिवारिक परिचय जानकर वे बड़े गदगद हुएँ उनके कहें वे अपणायत के शब्द आज भी याद है मुझे
“” अरे ! तू तो म्होरे घर रौ टांबर है “”
और फिर आरंभ हुआ हम दोनों के मध्य गहरा और विस्तारित संवाद।
उन्होंने वर्तमान साहित्यिक गतिविधियों एव कार्यक्रमों की स्थितियों पर चर्चा की, अपने जीवन अनुभव बताएँ।
वे बोलते रहे-बोलते रहे और मैं टकटकी लगाएँ सुनता रहा।
पहली ही मुलाकात में इतना अपनापन दिया
कि उनकी सरलता से ह्वदय भाव-विभोर हो गया।
श्रीरंगा ने उस वक्त बड़ी ह्वदय स्पर्शी बात कही …..
बेटा ! सफलता प्राप्ति में शक्ति लगती है लेकिन सफल होकर सरल बनें रहने में दुगुनी शक्ति लगती है।
सफल होने के साथ-साथ सफ़लता को पचाना भी आना चाहिए ।
रावण, राम से ज्यादा प्रखर-बुद्धिमान शक्तिमान था लेकिन उसकी शक्तियाँ उस पर हावी हो गई वो सफलता को पचा ना सका जिसका अंजाम हम सभी जानते है।
सफल होना उपलब्धि नहीं है,
सफल होकर सरल होना उपलब्धि है।
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उनके इस वक्तव्य के पश्चात् मैं उनके चरणों को छूने को आतुर हो गया मैं जैसे ही इस ओर बढ़ा तभी उन्होंने मुझे कंधों से पकड़ लिया और मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा
तुम लिखते होना !
अभी बातचीत के दौरान तूने कहा था।
मैंने कहा ….
जी ! थौड़ा-बहुत…. बस !
उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा ….
थौड़ा-बहुत से थौड़ा हटा दो,
अपनी क़लम को घोड़ा बना दो ,
दो इसे इतनी रफ़्तार ..ये बनें शोषित की आवाज़,
शोषण करने वाले भी सोचें तो सही ! एक बार।
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श्रीरंगा के ये कथन आज भी ज़हन में घर बनाएँ हुए है।
और प्रयास रहेगा कि मैं उनके बताएँ मार्ग का भली-भाँति अनुसरण कर सकूँ।
साहित्यिक सौर-मंडल के सूरज को शत-शत नमन
आप देह से भले-ही हमारे साथ ना हो लेकिन आपकी लिखी पुस्तकों में आपको महसूस किया जा सकता है।
आपकी पुस्तकें साहित्य जगत की धरोहर है ।
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✍🏻 रंगा राजस्थानी,राहुल
” प्रकृति प्रेमी रचनाकार एवं संस्कृतिकर्मी “