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Thursday, November 21

नई पार्टी बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए सचिन पायलट…

अभिनव न्यूज, दौसा/जयपुर: पिता राजेश पायलट की पुण्यतिथि पर सचिन पायलट ने भावुक पोस्ट किया. इसमें लिखा, “पूज्य पिताजी को पुण्यतिथि पर हृदय से नमन! अपनी कर्मभूमि से उनका जुड़ाव, जनता से अपनेपन का रिश्ता एवं जनकल्याण के प्रति उनकी समर्पित कार्यशैली मेरे लिए मार्गदर्शक है. उन्होंने जनहित को सर्वोपरि मानकर कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. उनके विचारों और आदर्शों का सदैव अनुसरण करता रहूंगा.” कांग्रेस को न छोड़ने और नई पार्टी न बनाने का फैसला पिता की राजनीति का ही अनुसरण है.

कांग्रेस आलाकमान से कुछ मुद्दों पर मतभेद होने के बावजूद भी राजेश पायलट आजीवन कांग्रेस में रहे. वे कांग्रेस में रहकर ही कांग्रेस से अपने सिद्धांतों की लड़ाई लड़ते रहे, लेकिन उन्होंने कांग्रेस का दामन कभी नहीं छोड़ा. सचिन पायलट भी अब उन्हीं के नक्शे-कदम पर कांग्रेस में रहते हुए कांग्रेस से लड़ाई जारी रखेंगे. आइये जानते हैं कि वह कौनसे अहम कारक रहे, जिनके चलते सचिन पायलट ने कांग्रेस छोड़कर नई पार्टी बनाने को तवज्जो नहीं दी…

सीएम पद की दौड़ तब और मुश्किल हो जाती

सचिन पायलट की गहलोत से लड़ाई मुख्यमंत्री पद को लेकर ही रही है और भविष्य में भी सीएम बनना उनका एकमेव लक्ष्य है. पायलट यह जानते हैं कि अगर वे कांग्रेस में बने रहते हैं तो आज नहीं तो भविष्य में उनके सीएम बनने के चांस बेहतर हैं, लेकिन यदि वे कांग्रेस छोड़कर नई पार्टी बनाते हैं तो अव्वल तो नई पार्टी की इतनी सीटें ही नहीं आएंगी कि वो सीएम बन सकें और नई पार्टी के साथ तीसरे मोर्चे का गठबंधन भी करें तो जरूरी नहीं कि यह गठबंधन सत्ता के लिए यदि ‘डिसाइडिंग फेक्टर’ बने तो सीएम बनने का मौका उन्हें ही मिले.

प्रदेश में कभी सफल नहीं हो पाई नई पार्टियां

राजस्थान की राजनीति की बात करें तो जनता का समर्थन ‘थर्ड फ्रंट’ या रीजनल पार्टियों को ज्यादा नहीं रहा है. राज्य के बड़े नेताओं ने अपनी पार्टी को छोड़कर जब-तब नई पार्टी बनाई है, उनकी कोशिश सफल नहीं रही हैं. 2013 में बीजेपी से अलग होकर डॉ. किरोड़ीलाल मीणा ने क्षेत्रीय पार्टी एनपीपी का गठन किया. लेकिन वे सिर्फ 4 विधायक ही जिता पाए.

इसके बाद वसुंधरा राजे से नाराजगी के बाद 2018 में पूर्व मंत्री घनश्याम तिवाड़ी ने अपनी क्षेत्रीय भारत वाहिनी पार्टी बनाई, लेकिन वे खुद की भी जमानत नहीं बचा पाए. हनुमान बेनीवाल ने राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी बनाई, लेकिन वे तीन विधायक ही जिता पाए. ऐसे में प्रदेश में नई पार्टी का भविष्य अभी उज्ज्वल नहीं है.

खुद पार्टी छोड़ेंगे तो नहीं मिलेगी जनता की सहानुभूति

सीएम गहलोत की सोच थी कि सचिन विषम हालातों के चलते खुद ही पार्टी छोड़ देंगे. लेकिन सचिन पायलट भी खुद पार्टी छोड़ने के मूड में नहीं है. यदि कांग्रेस पार्टी उन्हें निकालती है तो समर्थकों और जनता सहानुभूति उसने जुड़ती. उनके समर्थक

भी उन्हें एक ऐसे ‘नायक नेता’ के रूप में पेश करते, जो अपने दम पर पार्टी को सत्ता में लाया, लेकिन पार्टी ने ही उसका साथ नहीं दिया. तब इस सहानुभूति का लाभ उन्हें आने वाले विधानसभा चुनाव में मिलता. भले ही वे नई पार्टी से ही लड़ते. सचिन खुद पार्टी छोड़ते तो यह लहर उनके साथ नहीं रहती.

दो दशक में जो समर्थक जुटाए वो खिसक जाएंगे

पायलट दो दशक के कांग्रेस की राजनीति में हैं. इस पार्टी की राजनीति भी उन्हें पिता से विरासत में मिली. करीब बीस साल में राजनीतिक क्षेत्र में पायलट ने कांग्रेस से नाम, शोहरत, पद-प्रतिष्ठा और लाखों समर्थक जुटाए हैं. कांग्रेस का जाना-माना युवा चेहरा बनने के बाद अब अगर वे पार्टी को छोड़ने के जैसा निर्णय करते तो 20 साल में विभिन्न वर्गों के जो फोलोअर्स जुटाए हैं, उनमें से कई छिटक जाएंगे. सिर्फ युवा जोश के चलते तो चुनाव जीते नहीं जाते.

आर्थिक संसाधन और समर्थक जुटाना भी बड़ा जोखिम

जनता की पसंदगी के अलावा नई पार्टी के दूसरे जोखिम भी बहुत हैं. नई पार्टी के लिए बड़े पैमाने पर आर्थिक संसाधन जुटाना पहली जरूरत है. इसके अलावा अतिरिक्त समय-ऊर्जा खर्च करके समर्थक जुटाना भी बड़ा टास्क है. कांग्रेस में रहकर भले ही वे गहलोत से टकराते रहें, लेकिन पार्टी के झंडे तले मिलने वाले वोट तो उनके खाते में जाएंगे ही. ऐसे में इतने बड़े वोट बैंक को खोना भी उन्हें तर्कसंगत नहीं लगता.

इतने बगावती तेवर के बावजूद आलाकमान खिलाफ नहीं

पिछला विधानसभा चुनाव जिताने और आलाकमान द्वारा गहलोत को सीएम बनाए जाने के बावजूद सचिन पायलट की रणनीति रही है कि उन्होंने गहलोत सरकार की नीतियों पर, सरकार की कमियों पर और अपरोक्ष रूप से सीएम गहलोत पर भी वार किए हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी कांग्रेस पार्टी या आलाकमान के खिलाफ एक शब्द भी मीडिया में नहीं बोला है.

वे अपने भाषणों और बयानों में इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि कुछ भी ऐसा नहीं बोला जाए जो कांग्रेस के आला नेताओं के खिलाफ जाता हो. यह भी एक वजह है कि कांग्रेस ने इतने बागी तेवरों के बावजूद उनके खिलाफ कोई ‘एक्शन’ नहीं लिया.

समर्थक कांग्रेस विधायकों का साथ छूटने का भी डर

सरकार के खिलाफ मानेसर बगावत के लेकर अब तक कांग्रेस के जो विधायक सचिन पायलट के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं, उन्हें यही उम्मीद है कि एक दिन आलाकमान सचिन पायलट को ‘पावर’ देगा तो उनकी राजनीतिक शक्ति खुद-ब-खुद बढ़ जाएगी.

2018 में ऐसे ज्यादातर विधायक कांग्रेस के कैडर वोट, अपने चेहरे और पायलट के समर्थक वोटों के दम पर जीत कर आए थे. विधायक जानते हैं कि अगर पायलट कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाते हैं तो कांग्रेस के कैडर वोट के बिना उनका जीतना मुश्किल होगा. ऐसे में संभव था कि नई पार्टी बनाने पर पायलट समर्थक कुछ विधायक छिटककर गहलोत के पाले में चले जाते.

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