सिनेमाघर तब एलीट नहीं हुआ करते थे; छोटे शहरों-कस्बों में यह उत्सव के ठिकाने हुआ करते थे और हमारा उत्सवधर्मी शहर — बीकानेर, इसे और अनूठा बना देता था। रात से ही सिनेमाघरों में लगती लंबी लाइनें, टिकट वाली खिडकी के अंदर एक-साथ पांच-सात हाथों की टिकट के लिये मनुहारें, हॉल में बीडी-सिगरेट की गंध और बंद होती-जलती रंगीन लाइटों के बीच सीटीयों और तालियों की गडगडाहट बीकानेर ही नहीं, समूचे सिनेमा के स्वर्णिम काल की बानगी है। सिनेमा के पुराने चस्केबाजों से सुना कि इस शहर में किसी फिल्म की रिलीज के समय कोटगेट, केईएम रोड और परकोटे में लगने वाले फिल्मी पोस्टर पर भी भीड इकट्ठा हुआ करती थी। तांगो के दोनों तरफ लकडी के फट्टो पर लगे पोस्टर और माइकिंग भी आकर्षण का केन्द्र हुआ करते थे। पान की दुकानों में लकड़ी के पोस्टरशुदा फट्टे प्रचार भी थे और धूप से बचाव का जतन भी। तब सिनेमा सामाजिकता का हिस्सा था। मेरे बचपन के ज़हन में आज भी परकोटे की कलँगी कहे जाने वाले साले की होली में सिनेमा के रतजगे कैद है। शनिवार को रात-भर बीच चौक में वीसीआर पर दरियो पर
बैठा-अधलेटा-सोया-अलसाया पूरा मोहल्ला मनोरंजित होता था। फिल्म के बीच चाय की मनुहारें होती थी तो बत्ती गुल हो जाने पर यह मजमा भजन मंडली में तब्दील हो जाता था। टीवी का दौर आया तो किसी एक के घर टीवी पर रामायण देखने पूरा मोहल्ला बाक़ायदा हक से बैठा करता था। सिनेमा के बहाने गूँथी यह आनन्दमयी सामाजिकता हम नब्बे के दशक में सयाने हो रहे बच्चों की अब अप्रतिम ‘नॉस्टेल्जिया’ है। बीकानेर किसी जमाने में सही मायनों में प्रोग्रेसिव और दूरदर्शी रहा। फिर बात चाहें पश्चिमी राजस्थान की प्यास बुझाने वाली गंगनहर लाने की हो या लचरहाल छोटे-मोटे अस्पतालो के दौर में पीबीएम जैसे बड़े अस्पताल की संकल्पना की हो। मनोरंजन के लिये भी राजपरिवार की ओर से देश के बाकी शहरों के मुकाबले बहुत पहले-पहल खुलने वाला सिनेमाहॉल था-गंगाथिएटर। पहली रिलीज फिल्म थी होमी वाडिया की ‘झबक’ । पृथ्वीराज कपूर तक यहाँ नाटक कर चुके थे। इसकी सुंदरता पर इतने मोहित हुए कि कहा-इसके पहिये होते तो मैं बम्बई ले जाता। बीकानेर के समृद्ध व्यापारियों ने भी सिनेमाहॉल खोलने की बहुत कोशिश की परंतु तब के राज से इजाजत नहीं मिली। संयोग देखिए कि 1950 में लागू गणतंत्र के साल ही बीकानेर में एक नया सिनेमाहॉल खुला-विश्वज्योति। पहली फिल्म प्रदर्शित हुई-शीशमहल। शहरी आबादी के लिये ये सिनेमाहॉल ज्यादा सुलभ था इसलिये परिवार सहित लोग यहाँ फिल्म देखने आने लगे। बाद में मिनर्वा, प्रकाशचित्र, सूरजटॉकिज और सिने मैजिक मल्टीप्लेक्स/ हॉल भी खुले परंतु घर-घर सुलभ हुए सिनेमा ने ज्यादातर हॉल बंद भी करवा दिये। विश्वज्योति तो टूट कर शॉपिंग मॉल बन चुका है। किसी के लिए ये केवल खबर भर है पर हम जैसे सिनेमा के रसिकों के लिए भारी दुर्घटना। भारतीय सिनेमा में सिनेमा-प्रेमी शहर बीकानेर का जिक्र पंडित भरत व्यास के नाम के बिना बेमानी है। एक होता है काम और एक होता है हुनर। एक और होती है सिद्धि तो दूसरी होती है प्रसिद्धि। इन दोनों का मिलन कम ही होता है पर पंडित भरत व्यास को गीत लिखने में जो सिद्धि हासिल थी, उससे प्रसिद्धि भी बहुत मिली। अपने गीतों से हिन्दी सिनेमा के गुणीजनो में उनका नाम दर्ज हुआ तो वहीं उनके गीतों को जन-जन ने अपने कंठो पर भी सजाया। “ऐ मालिक तेरे बंदे हम” गीत आज भी ईश्वर के प्रति हमारी आसक्ति, प्रार्थना और उसके प्रति अटूट विश्वास का गीत है। आ लौट के आजा मेरे मीत, निर्बल की लडाई बलवान से, आधा है चन्द्रमा रात आधी, तेरे सुर और मेरे गीत, दिल का खिलौना हाय टूट गया, ज्योत से ज्योत जगाते चलों, तुम गगन के चन्द्रमा जैसे फिल्मों गानो को उनके बोलों ने सौन्दर्य दिया, भावों से परिपूर्ण किया। बीकानेर के बल्लभेश दिवाकर के भी कई गीत हिन्दी फिल्मों में आये। पंडित भरत व्यास के छोटे भाई बी एम व्यास ने फिल्मों में अभिनय से नाम कमाया। नीचा नगर, पतिता, आवारा, दो आँखें बारह हाथ, सम्पूर्ण रामायण जैसी कितनी ही फिल्मों में रौबदार आवाज और चेहरे से असरदार काम किया। हिन्दी सिनेमा की एक बेहद मकबूल फिल्म पाकीजा में अमर संगीत देने वाले गुलाम मोहम्मद भी बीकानेर से ही थे। बेहतरीन तबला वादक और संगीतकार। उनके दो भाई भी नौशाद के सहायक रहे। गुलाम मोहम्मद का नाम तो बहुत बाद में पाकीजा फिल्म से हुआ पर इससे बहुत पहले फिल्म मिर्जा गालिब में गालिब की ग़जलों को बहुत बढ़िया कम्पोज कर चुके थे। फिल्म के लिये उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। पाकीजा के संगीत को आज भी हिन्दुस्तानी सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ फिल्म संगीत में से एक माना जाता है। जिस दौर में भारतीय संगीत का तौर-तरीका बिल्कुल बदल रहा था, उस दौर में विशुद्ध भारतीय रागों और वाद्यों से गुलाम मोहम्मद ने अमर संगीत रचा पर अफसोस, यह सफलता वह स्वयं न देख पाए। उस साल के फिल्म फेयर पुरस्कारों में पाकीजा के लिये जब गुलाम मोहम्मद को पुरस्कार नहीं मिला तब अभिनेता प्राण ने भी सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार लेने से मना कर दिया। गुलाम मोहम्मद को वैसे पुरस्कार की क्या जरूरत। आज भी घर-घर गूंजता संगीत उनका सच्चा अवार्ड है। गुलजार की फिल्म ‘लेकिन’ के लिए लता मंगेशकर को जब मांड गाना पड़ा तो उन्होंने पदमश्री और बीकानेर की धरोहर-सम्मान अल्लाहजिलाई बाई से इसके लिए विनम्रता से इजाजत मांगी, ऐसा उनके परिवार वाले अक्सर बताते हैं। अगर यह बात सच है तो श्रेष्ठता के शिखर पर बैठे दो कलाकारों की यह विनम्रता सचमुच बहुत कमाल है। सिनेमा के रसिक बताते है कि हिन्दी सिनेमा के मशहूर गायक-संगीतकार और अभिनेता कुंदनलाल शहगल का भी फिल्मों में आने से पहले बीकानेर में बहुत आना-जाना था। वह तब एक टाइपराइटर कम्पनी में काम करते थे और काम के सिलसिले में उनका बीकानेर आना होता था। रांगड़ी चौक में उनके लम्बी रियाजों की रातें दर्ज है। जनकवि हरीश भादाणी के पिता संगीतज्ञ ‘बीबा महाराज’ के भी सम्पर्क में वह रहे थे। पुराने जमाने के एक मशहूर अभिनेता-निर्देशक किशोर साहू की आत्मकथा से पता चला कि बीकानेर के उनके दोस्त द्वारका दास डागा और उनका परिवार उस जमाने की फिल्मों में फाइनेंस का काम किया करते थे। द्वारका दास डागा की शादी के लिए किशोर साहू बीकानेर आए थे और उनकी आत्मकथा में कई पन्ने बीकानेर और बीकानेर के अपने व्यापारी मित्र के बारे में है।
बीकानेर के ही संगीतकार अली गनी, कमल राजस्थानी, रत्नदीप हेमराज, चांद परदेशी ने भी काफी फिल्मों में संगीत दिया और उल्लेखनीय काम किया। बीकानेर के गायक सुरेश राजवंशी ने कुछ फिल्मों में गाने गाए और जगजीत सिंह के संघर्ष के दिनों में उनके साथ एक अल्बम भी आया था। बीकानेर के अब्दुल सत्तार ने एक बार चले आओ, तुम्हें नहीं छोडूंगा, इन इंडिया टूडे और अटल फैसला जैसी फिल्मों का निर्माण किया। नई पीढी के अहमद हारून कादरी, संदीप आचार्य, राजा हसन, प्रियंका मालिया, समीर ने रियलिटी सिंगिंग शो में युवाओं के बीच खूब नाम कमाया। बीकानेर रंगमंच की नई पीढी के कई अभिनेता टीवी सीरीयल, फिल्मों और वेब सीरीज में सक्रिय है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक राजेश तैलंग अभी हिन्दी सिनेमा में बीकानेर के सबसे चमकते नाम है। मिर्जापुर, सलेक्शन डे, दिल्ली क्राइम जैसी चर्चित वेब सीरीज में उन्होंनें अपने अभिनय से सभी को प्रभावित किया है। हजार चौरासी की मां, मंगल पांडे, फैंटम, हसीना पारकर, पंगा, ओमरेटा, मुक्केबाज और पगलेट जैसी फिल्मों में भी राजेश तैलंग महत्त्वपूर्ण किरदार निभा चुके हैं और लगातार हिन्दी सिनेमा में सक्रिय है। बीकानेर रंगमंच से निकले दीपक पारीक सब टीवी पर प्रसारित हो रहे ‘वागले की दुनिया’ का अहम हिस्सा है। इससे पहले वह ‘खिचडी’ , ‘तीन बहूरानियां’ , ‘मिसेज तेंदुलकर’ , ‘बडी दूर से आये है’ , ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ जैसे चर्चित टीवी सीरियलों में अहम किरदार निभा चुके है। जयनीरज राजपुरोहित अनेक विज्ञापन फिल्मों के अलावा टीवी के चर्चित सीरियल ‘बालिका वधु’ , ‘मिले जब हम तुम’ और अक्षय कुमार की फिल्म ‘ओह माई गॉड’ में नजर आ चुके है। अनुराग व्यास जी टीवी के सीरीयल ‘आपके आ जाने से’ , सब टीवी के ‘भाखरबडी’ और अभी दंगल टीवी पर प्रसारित हो रहे ‘रक्षाबंधन’ में अहम रोल निभा रहे हैं। बीकानेर रंगमंच के ही नीरज शर्मा, भरतसिंह राजपुरोहित, संदीप भोजक, अश्विनी पारीक, शांतनु सुरोलिया भी विज्ञापनों और सीरियल में नजर आ चुके हैं। मुम्बई में सक्रिय बीकानेर की अभिनेत्रियों में चारू आसोपा, हरकमलप्रीत नैंसी और मिथिला पुरोहित उल्लेखनीय नाम है। अभिनेत्री संयोगिता डोगरा एक डांस रियलिटी शो का हिस्सा रह चुकी है। चैनलों की आई बाढ़ से बहुत पहले दूरदर्शन और राजस्थानी फिल्मों में भी बीकानेर रंगमंच के एस डी चौहान, प्रदीप भटनागर, लक्ष्मी नारायण सोनी, रामसहाय हर्ष, महेंद्र शर्मा, विजय सिंह राठौड़ जैसे गुणी कलाकार काम कर चुके हैं। बीकानेर के ही लोहित शर्मा नेटफ्लिक्स और अन्य ओटीटी प्लेटफॉर्म पर लगातार वॉयसओवर का कार्य कर रहे है। बीकानेर शूटिंग के लिए भी निर्माता-निर्देशकों की पसन्द रहा है। लैला-मजनूं, क्षत्रिय, गदर, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों, खूबसूरत, गुलामी, हाइवे, बादशाहों, महबूबा जैसी भव्य फिल्मों में बीकानेर की खूबसूरत हवेलियाँ और लोकेशन किरदार की तरह दिखाई देते है। बीकानेर रंगमंच के वरिष्ठ कलाकार और आर्टिस्ट कोऑर्डिनेटर दिलीप सिंह भाटी पिछले काफी समय से बीकानेर में हो रही शूटिंग में बड़ी संख्या में स्थानीय कलाकारो को मौका दिला रहे हैं।
इन सब उपलब्धियों के बावजूद बीकानेर अपनी धरोहरों, व अपने कलाकारों के प्रति निष्ठुर ही रहा। इतने सालों बाद भी पंडित भरत व्यास और गुलाम मोहम्मद के नाम बीकानेर में न कोई मार्ग है और न ही कोई आयोजन। अपनी धरोहरों को सहेजना, उनको समृद्ध करना, नई पीढ़ी को उनके बारे में बताना हमारी जिम्मेदारी है। हर साल सैकड़ों महत्त्वपूर्ण आयोजनों का साक्षी बनने वाला ये शहर उनकी स्मृति में कोई गम्भीर आयोजन क्यों नहीं करता, यह सोचने की बात है।
– नवल व्यास