राजू श्रीवास्तव : सहज, मौलिक और गरिमामय मनोरंजन के युग का अवसान
संजय आचार्य वरुण
कई दिनों की पीड़ा झेलने के बाद आज मृत्यु जीत गई और राजू हार गए। जब तक सांस थी, तब तक आस थी कि राजू एक बार फिर खड़े होंगे, खुद भी चहकेंगे और हमें भी हंसाएंगे।
विधाता के लिए सब बराबर हैं, हम जानते हैं कि राजू श्रीवास्तव हमारे लिए बहुत कीमती थे। वे हमारी अवसादों, अपराधों और तनावों से भरी दुनिया की मौलिक मुस्कुराहट थे ।
आज जब इंसान में इंसानियत को छोड़कर सब कुछ है, प्रतिस्पर्धा है, लालच है, महत्वाकांक्षाएं हैं, भोग की बेलगाम वृत्ति है, हांफता- दौड़ता जीवन है, ऐसे में सहेजकर रखने लायक जो था, वही राजू श्रीवास्तव था लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद हम उन्हें नहीं बचा सके ।
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