तिरछा तीर: वो कब समझेंगे, जिनका समझना जरूरी है..
■ संजय आचार्य वरुण
सुबह - सुबह सात बजे किसी ने जोर से हमारे घर का दरवाजा खटखटाया। हमने नींद से जागकर आंखें मसलते हुए दरवाजा खोला तो देखा कि हमारे परम मित्र चकरम जी गेट पर खड़े हैं। हमने कहा कि 'अरे चकरम जी, आप इतनी सुबह हमारे घर…'
हम अपनी बात पूरी करते इससे पहले ही हमें लगभग धकियाते हुए चकरम जी बंगाल की खाड़ी से उठने वाले किसी तूफान की तरह हमारे घर में घुस गए। आंगन में लगी टेबल- कुर्सी पर आराम से जमकर बैठते हुए बोले- 'अभी हमसे कुछ मत पूछिए मित्र, अभी हमारा सिर भन्नाया हुआ है। रात भर बिजली ने हमारे साथ कबड्डी खेली है..हम पूरी रात जागे हुए हैं। अभी सुबह बिजली आई तब तुम्हारी भाभी सोई है। हमें नींद नहीं आई तो हम चाय पीने के लिए तुम्हारे यहां चले आए।'
चकरम जी ने एक ही सांस में सब कुछ कह डाला। हम अपनी पत्नी को चाय का बोलने अंदर आए तो देखा कि वह मंदिर में बैठी हुई भगवान को इस तर...