आख़िर कब तक जारी रहेगा बंदर बांट का सिलसिला
संजय आचार्य वरुण
बेहद अफसोसनाक दौर है ये। साहित्य, संस्कृति और कलाएं भी तुच्छ स्वार्थों से भरी ओछी राजनीति का शिकार हो रही हैं। अकादमियों की नियुक्तियां हों, पुरस्कारों के निर्णय हों अथवा आयोजनों में भागीदारी करवाने की बात हो, आजकल हर जगह योग्यताओं को बेझिझक होकर नज़र अंदाज करने का फैशन सा चल पड़ा है। इंसान में जमीर नाम की कोई चीज बची ही नहीं है। राजनीति का चरित्र तो कई दशकों पहले ही दागदार हो चुका था, अब उसी घटिया राजनीति का प्रवेश साहित्य, कला और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी हो चुका है। इसका कारण यह है कि इन क्षेत्रों में वे लोग आ गए हैं, जो इन क्षेत्रों के हैं ही नहीं, उनका उद्देश्य केवल पद, पैसा, प्रतिष्ठा, प्रभाव और पुरस्कार पाना होता है। साधना, अध्ययन, चिन्तन- मनन और निस्वार्थ समर्पण से इनका दूर- दूर का भी कोई नाता नहीं है। चूंकि ये राजनेताओं और अधिकारियों के आसपास ही मंडराते रहते ह...