~ आचार्य ज्योति मित्र
आप मानें या न मानें लेकिन हमारे उस्ताद जी की नजर में दुनिया भर में टोपियों का वर्चस्व सदा से रहा है। उस्ताद जी अपने समकालीनों में मंजे हुए टोपीबाज माने जाते हैं। उनको यह खिताब ऐसे ही नहीं मिला उन्होंने कई बार टोपी के लिए टाट उलटे है व आज भी उलटते ही जा रहे हैं। वैसे हमारे उस्ताद जी तो टोपी पहनाने की शास्त्र सम्मत परंपरा का निर्वहन भर करते हैं ।
उस्ताद जी पहले शिद्दत से टोपी पहनाते हैं फिर मौका निकालकर टोपी उछालने में भी देर नहीं करते। टोपी पहनाना फिर टोपी उछालने के खेल के वे बड़े खिलाड़ी हैं । ओलंपिक एसोसिएशन यदि इस खेल को मंजूरी दे तो उस्ताद जी की गैंग मैडल का अंबार लगा देगी। वैसे तो उस्ताद कभी नाराज होते नहीं, होते भी हैं तो दर्शाते नहीं, इसलिए भविष्य में गंगा में मैडल विसर्जित करने का जोखिम भी नहीं रहेगा। उस्ताद जी जानते हैं जिस तरह शराब बंदी के लिए वहां शराबी होने जरूरी हैं उसी तरह टोपी उछालने के लिए एक अदद टोपी जरूरी है।
उस्ताद जी पढ़े-लिखे ज्ञानी हैं इसलिए जानते है हमारे देश में यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः का सिद्धांत सर्वापरि माना जाता है, स्पष्ट है नारी ही पूजनीय होती है, इसीलिए यहाँ की धरती पर टोप को नहीं टोपी को वंदनीय व दर्शनीय माना गया है। टोप पहनने वाली अंग्रेज महारानी के कारिंदे जब देश में शासन करने आए तो देशभक्तों ने उन्हें खदेड़ने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी थी। उस्ताद जी के प्रेरणा स्रोत केजरीवाल हैं ।
वो केजरीवाल ही थे जिन्होंने पहले अन्ना को टोपी पहनाई, उसके बाद पूरी दिल्ली को टोपी पहना दी। देखा जाए तो सत्ता व पावर का रास्ता टोपी के इर्द गिर्द ही चलता है। बस यही बात एक भोले भाले नेताजी नहीं समझ पाए, उन्होंने टोपी की जगह हेलमेट पहनाने की जुर्रत की। वो जनता को रास नहीं आई । उस भले नेता को कौन समझाए कि जिन्हें पुलिस डंडे के जोर पर हेलमेट नहीं पहना पाई उसे तुम क्या पहनाओगे। हां, सरकार यदि यही ठेका उस्ताद जी के टोपी पहनाने के अनुभव को देखते हुए उस्तादजी प्राइवेट लिमिटेड को दे तो वे अपने टोपी पहनाने के हुनर का इस्तेमाल हेलमेट पहनाने में भी कर सकते हैं। वैसे हमारे उस्ताद जी का तो काम ही इसकी टोपी उसके सर पर रखकर देश की जीडीपी में इजाफा करना है।
एक बार एक राष्ट्रीय स्तर के नेताजी ने कह दिया कि वे टोपी पहनने व पहनाने में विश्वास नहीं करते । मोहब्बत की दुकान खोले उस्ताद जी के देशभर में बैठे चेले चपाटों ने उस नेताजी की इस बात पर जमकर निंदा की । वैसे उस्ताद जी का पेशा सामनेवाले की गर्मी उतारने का ही है। किसी की भी टोपी उछालने में वे अमीर , गरीब , ब्राह्मण , बनिया का भेदभाव नहीं करते, समान भाव से सबकी टोपी उछालते है।
इधर टोपी की महिमा हमारे भारतीय समाज में गहरे तक पैठी हुई है।
कुछ समय पहले हुए कुंभ मेले में टोपी वाले बाबा भी चर्चा में रहे ।समाज के वे वंचित लोग जो किसी कारण से टोपी पहनने में उपेक्षा के शिकार होते हैं या जिन्हें टोपी पहनने का कभी मौका नहीं मिलता वे रस्म पगड़ी पर अपने सगे सम्बन्धियों से पगड़ी बंधवाकर इतराते रहते हैं । आखिर सामाजिक परम्परा भी तो कोई चीज होती है।
सामाजिक स्तर पर टोपी पहनने से इनकार सरासर अपराध मान लिया जाता है। ऐसे समय में उस्ताद जी व उनके गिरोह के लोग इस तरह टोपी पहनने वालों को हिकारत से देखते हैं। इस प्रक्रिया को वे सामाजिक रूप से पिछड़ने का मूल कारण बता देते हैं। उस्ताद जी जानते हैं टोपी में अमरत्व छिपा हुआ है इसलिए कोई ऐरा गैरा किसी को टोपी पहना दे वो उस्ताद जी के बर्दाश्त के बाहर होता है। कुछ इतिहासकारों की मानें तो मुगल शासक औरंगजेब अपने निजी खर्चे निकालने के लिए टोपियां बनाता था । जब टोपियां बनाता था तो पहनाता भी होगा ।
टीपू सुल्तान और तात्या टोपे अपनी टोपी के कारण इतिहास में अमर हो गए। वहीं आजादी आंदोलन के समय खद्दर टोपीधारियों की संख्या में इजाफा हुआ। ऐसे लोग स्वतंत्रता सेनानी कहे जाने लगे। गांधी जी का टोपी पहने फोटो मेरी नजर में नहीं आया इसके बावजूद प्रसिद्ध ‘गांधी टोपी’ हुई। नेहरू टोपी के मामले में पहली बार पिछड़ गए। आजाद भारत मे धीरे-धीरे टोपी का चलन समाप्त सा हो गया था ।
फिल्मों में ‘सिर पर लाल टोपी रूसी’ , सर पर टोपी लाल हाथ में रेशम का रुमाल से लेकर नसीरुद्दीन शाह की ‘तिरछी टोपी वाले’ जैसे गाने भी वो चमत्कार नहीं कर पाए जो केजरीवाल ने कर दिखाया। उन्होंने पार्टियों की आंखें खोल दी। कांग्रेस में टोपी के कारण सेवादल वालों की पूछ बढ़ गई तो अखिलेश भैया की लाल टोपी तो जैसे उनके शरीर का अंग हो गई।
हमारे उस्ताद जी से प्रेरणा सरकार भी लेती है तभी तो हाल ही में हुए राजस्थान साहित्य अकादमी के जलसे में साहित्यकारों को टोपी पहनाई गई । इस जलसे में कई लेखकों को यह टोपी रास नहीं आई उनके लिए फोटो में चेहरा महत्वपूर्ण था इसलिए उन्होंने टोपी उतार दी। टोपी पहनाने की कला को अब सरकारी संरक्षण मिलने लगा है। हमारे उस्ताद जी महत्वकांक्षी हैं उनको पता है कि सरकार जो काम नहीं कर सकती वो धर्म कर सकता है।
शायद इसीलिए उस्ताद जी व उनके चेले टोपी पहनाने को सतरहवाँ संस्कार बनाने के लिए धार्मिक आख्यानों में इसके पक्ष में प्रमाण ढूंढ रहे हैं । सतरहवें संस्कार की उनकी ये मुहिम जल्द ही रंग लाए यही कामना करते हैं। वैसे आपको बता दूं उस्ताद जी स्वयं टोपी से परहेज करते हैं । बेहतर यही होगा कि लोग टोपियां ही न पहनें ताकि उन्हें उछालने के लिए इस ढलती उम्र में हमारे उस्ताद जी की टोपी सलामत रहे।