अभिनव डेस्क. आचार्यों का चौक। वही चौक जो किसी जमाने में सोनावतों का चौक कहलाता था। कालांतर में सोनावत परिवारों की संख्या कम होती गई और चौक ने समय के अनुसार अपनी पहचान बदल ली। बीकानेर के लगभग प्रत्येक चौक में एक भैरूंजी का मन्दिर जरूर है। आचार्यों के चौक में भी भैरूंनाथ शताब्दियों से विराज रहे हैं। इनके चमत्कारों के अनेक किस्से हम अपने माईतों से हमेशा सुनते आए हैं। चौक में रहने वाले सभी लोग भैरूंजी के प्रति गहरी आस्था रखते हैं। इस आलेख में हम जिस कालजयी व्यक्तित्व की चर्चा करने जा रहे हैं, वे भी भैरूंनाथ के अनन्य भक्त और उपासक थे। 1990 तक जन्मे हुए लोग उन्हें भली- भांति जानते हैं। वे बाबा डॉक्टर थे। हम आज की तेज रफ्तार जिन्दगी में बाबा डॉक्टर जैसी शख्सियतों को भूलते जा रहे हैं। लेकिन हमें उनको भूलना नहीं है।
बाबा डॉक्टर अपने समय और मानवता के लिए जीवन भर काम करते रहे। आज जब चिकित्सा विज्ञान अत्याधुनिक ज्ञान, तकनीक, उपकरणों और बेहद महंगी दवाइयों के साथ आसमान को छू रहा है, उस दौर में छोटी सी डिग्री रखने वाले उस चिकित्सक को याद करना जरूरी है जिसने अपने लगभग 65 साल के चिकित्सकीय जीवन में लाखों लोगों को अपनी सामान्य दवाओं और बेहद जिन्दादिल मजाकिया व्यवहार से स्वस्थ कर दिया था।
बाबा डॉक्टर जिनका वास्तविक नाम डॉ. गौरीशंकर आचार्य था, अपनी युवावस्था में उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि वे कभी चिकित्सक बनेंगे और लाखों लोगों के जीवन की रक्षा करेंगे। दरअस्ल, हुआ यूं था कि एक बार बीकानेर में मलेरिया का प्रकोप हुआ। शहर के हर घर में दो- तीन लोग मलेरिया से पीड़ित हो गए। उस जमाने में चिकित्सा सेवाएं आज जितनी मजबूत स्थिति में नहीं थी।परिणामस्वरूप शहर में हाहाकार मच गया।
बीकानेर के बड़ा बाजार क्षेत्र में जहां आज बैण्ड की दुकान है, उसके ऊपर वाले हिस्से में डॉ. भगतराम का अस्पताल हुआ करता था। डॉ. भगतराम ने बीकानेर को इस महामारी से बचाने के लिए कमर कस ली।
उन्होंने कुछ सेवाभावी युवकों की टीमें तैयार कर शहर में विभिन्न स्थानों पर चिकित्सा शिविर लगाए। इन शिविरों में मलेरिया पीड़ित लोगों का उपचार किया जाता था और स्वस्थ लोगों को यह बीमारी न हो, इसके लिए काढ़ा पिलाया जाता था।डॉ. भगतराम ने एक -एक समझदार युवक को एक-एक शिविर का प्रभारी बना दिया। श्री गौरीशंकर आचार्य जो उस समय तक ‘बाबा’ नहीं बने थे, वे भी इन सेवाभावी युवाओं में से एक थे। उन्होंने निस्वार्थ भाव से बीकानेर को मलेरिया मुक्त बनाने के लिए काम किया। जब महामारी खत्म हो गई तो श्री गौरीशंकर आचार्य की रुचि चिकित्सा क्षेत्र में हो गई। वे डॉ. भगतराम के सहायक बनकर प्रशिक्षित होने लगे। इसी दौरान आचार्यों के चौक के श्री गोपीकिशन आचार्य भी भगतराम जी के सहायक थे। उन्होंने भी आगे चलकर चिकित्सा क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
भगतराम जी के बाद गौरीशंकर जी ने उनके अस्पताल को चालू रखा और चिकित्सक के रूप में कार्य करने लगे। उन्होंने आर एम पी की डिग्री कर ली थी, कई वर्षों का अनुभव तो था ही, साथ ही उनकी इलाज करने की शैली लोगों को बहुत पसंद आने लगी। वे मरीज से इधर- उधर की बातें करते हुए रोग की पूरी जानकारी कर लेते थे। वे मरीज को यह एहसास कराते कि जैसे उसे कोई बीमारी है ही नहीं। मरीज के मानसिक रूप से हल्का होते ही दवा दोगुनी गति से काम करती थी। केवल दो ही दिन में मरीज बिल्कुल ठीक हो जाता था। वे धीरे- धीरे ‘बाबा’ के नाम से पहचाने जाने लगे।
उनकी लोकप्रियता और प्रसिद्धि तेजी से बढ़ने लगी। कुछ समय बाद उन्होंने अपना क्लिनिक आचार्यों के चौक में अपने निवास पर स्थापित कर लिया। दोपहर के भोजन अवकाश के अलावा सुबह- शाम को उनके क्लिनिक पर मरीजों की बेशुमार भीड़ रहती थी।
आज लगभग डेढ़ दशक हो गया है जब बाबा साहब इस संसार में नहीं हैं लेकिन उनका क्लीनिक आज भी उसी तरह पड़ा है। क्लीनिक के गेट पर पड़ा वह ताला जिसने बाबा साहब को बनियान, लूंगी, हाथ में घड़ी, और गले में मोटे मनकों वाली रुद्राक्ष की माला पहने हुए, जीवन भर रोते लोगों को हंसाकर भेजते हुए देखा है। क्लीनिक के बाहर लगी वे बैंचें आज उदास हैं कि अब तो बाबा साहब के दोनों पुत्र शिवजी भा और कालू भा भी इस संसार को छोड़कर जा चुके हैं, जिन्होंने बाबा साहब के जाने के बाद उनके छोटे से अस्पताल को चालू रखा था।
बहुत सारे लोगों ने वह दृश्य देखा हुआ है कि बाबा डॉक्टर के क्लीनिक के बाहर अहाते में एक बहुत पुरानी शायद एकदम शुरूआती दौर की मोटरसाइकिल खड़ी रहती थी। साइकिल जैसे स्टैंड वाली वह मोटरसाइकिल मेरे जैसे बाबा साहब के नन्हे मरीजों के लिए बड़े आकर्षण का केन्द्र थी। कालांतर में सुना कि कोई व्यक्ति बड़ी कीमत देकर उस प्राचीन मोटरसाइकिल को ले गया था।
बाबा डॉक्टर के जमाने में इस क्लीनिक में नियमित जाने वाले लोगों को वह दृश्य भी याद होगा जब क्लीनिक की बैंचों पर मरीजों के बैठने के स्थान पर आठ- दस कुत्ते बैठे हुए दिखाई देते थे। उन श्वानों के पानी पीने के लिए क्लीनिक के अहाते में पानी से तीन- चार पालसिये भी रखे रहते थे। बाबा साहब खुद भोजन करने से पहले सुबह- शाम उन श्वानों को मोटी- मोटी दस- बारह रोटियां डालते थे। यहां दिखाने आने वाले मरीजों को यह भी पता था कि बैंचों पर बैठे श्वानों को उठाना यहां मना है। इसलिए लोग आपस में एडजस्ट करके बैठ जाते थे।
बाबा डॉक्टर अपनी राजदूत मोटरसाइकिल पर बैठकर दूर- दूर तक मरीजों को देखने जाया करते थे। लोगों का उन पर अटल विश्वास देखने लायक था। लोग उनके पास अपने सुख- दुख सुनाने और पारिवारिक मसलों पर सलाह- मशविरा करने भी आते थे। वे जीवन भर लोगों की सेवा करते थे। उनका जीवन अत्यंत सादगीपूर्ण था। दिन भर हंसी-मजाक करना, लोगों की पीड़ा हरना और अपनी माला फेरना ही उनकी दिनचर्या थी। वे नवलनाथ जी के शिष्य थे और प्रतिदिन उनकी समाधि पर दर्शन करने जाया करते थे। डॉक्टर साहब वेदमाता गायत्री और भैरूं उपासक होने के साथ ही आध्यात्मिक साधक थे। उनके क्लीनिक में ठीक सामने एक संत का बड़ा सा छायाचित्र लगा हुआ था। कालांतर में पता लगा कि वे जनकवि हरीश भादाणी के पिताजी बीबा महाराज थे। आज बाबा डॉक्टर भले ही संसार में नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृतियां हजारों लोगों के हृदय में अंकित है।
– संजय आचार्य वरुण