लक्ष्मीनारायण रंगा
उजास पर्व मना रहे, मिटा तमस का त्रास।
दीप-दीप मिल रच रहे, उजियारा इतिहास।।
देख उजाला धरा का, आसमान चकराय।
नन्हें दीपक सामने, चंदा मुंह छिपाय।।
जगमग-जगमग दीप है, झिलमिल करे अपार।
नरकासुर से मुक्त हो, नाच रही हो नार।।
घर-घर दीपक नाच है, किरण-किरण का हास।
धरती पे ज्यों हो रहा शरद पूनमी रात।।
माटी जो पावो दबे, फिर दीपक बन जाय।
जला के तन मन अपना, प्रभु चरण चढ जाय।।
अपनी लौ को खोया के, दीपक यूं बुझ जात।
राम अयोध्या छोड़ते, दशरथ प्राण गुमात।।
तन मन पूरा होम के, दीपक देता ज्ञान।
परहित जो कुर्बान हो, होता वही महान।।
परहित खातर जो जले, जीवन यज्ञ बनाय।
माटी का घट ताप से, इमरत घट बन जाय।।
सूरज चाँद जब न रहे, रचता उजास पर्व।
नन्हें माटी दीप से, आसमान को गर्व।।
आंधी तूफा बढ रहे, अंधियारा अकूत।
ध्रुव की तरह अटल है, यह माटी का पूत।।
लौ उजास के फैलते, तमस सिमटता जाय।
राम को पास पाय के, मारीच भगा जाय।।
बिना तेल के दीप की, लौ पीली पड़ जाय।
राम बिना लंका घिरी, सीता दुर्बल गात।।
मंगल होते दीप की लौ नीली हो जात।
जगत हलाहल पियत जो, नीलकंठ बन जात।।
घोर अंधेर बिच जले, नन्हीं लौ सिर तान।
सुरसा के मुख बीच से, निकल रहे हनुमान।।
जग, जगमग हो जाएगा, कण कण होय उजास।
तन मन दीठ दीप बना, पल पल पर्व प्रकाश।।
तन दीपक मन ज्योत है, आत्मा सत प्रकाश।
जीवन बना उपासना, पल पल सांस उसाँस।।