विक्रम संवत् 1545 की वैशाख शुक्ला द्वितीया के दिन जोधपुर के राव जोधाजी के पुत्र बीकाजी ने अपने चाचा कांधल जी के सहयोग से बीकानेर राज्य की स्थापना की। अपने भाई बीदा तथा चाचा को इसी भू-भाग के कई गांव देकर स्वयं बीकाजी बीकानेर के शासक बने। इस प्रकार राठौड़ों के तीन घराने क्रमश: बीका, बीदा और कांधलात नाम से स्थापित हुए। इनके आश्रय में ढोली, दमामी जैसी संगीत जीवी जातियां रही। राजपूतों में से ही कुछ एक को मांगलिक अवसर या युद्ध अवसरों पर नगारा बजाने का काम सौंपा जाता था। बीकानेर की स्थापना के समय सुरतोजी बीकाजी के साथ आए। इनके तीन लड़के भायो, लाखो और चान्दो थे। भायो के वंशज भियाणी, लाखो के वंशज लाखाणी तथा चान्दो के चान्दवाणी कहलाए। इन परिवारों की संगीत परम्परा ही बीकानेर की विरासत कही जा सकती है। जिसने विश्व रंगमंच को अपने प्रदर्शनों से अभिभूत किया।
बीकानेर के महाराजा रायसिंह जी ने दिल्ली बादशाह की तर्ज पर राजकीय स्तर पर कलाकारों को प्रश्रय देने के लिए गुणीजन खाना स्थापित किया। महाराजा रायसिंह जी के अनुज पृथ्वीसिंह डिंगल के महाकवि माने जाते हैं। ‘बेलि क्रिसन रूक्मणी रीÓ उनकी अमर कृति मानी जाती है। उन्होंने संगीत-नृत्य की रोचक एवं भावपूर्ण रचनाएं की। जिसमें ‘कन्हैया नृत्याष्टकÓ तथा ‘योगमायाÓ कथक नृत्य में महत्त्वपूर्ण मानी गई है। कथक में इससे पूर्व कोई रचना बनी भी होगी, अभी तक ज्ञात नहीं है।
17वीं शताब्दी के प्रारम्भ में पुन: संगीत-नृत्य एवं संस्कृति के विकास का युग महाराजा अनूपसिंह जी के शासनकाल से प्रारम्भ होता है। अनेक प्रकार की शास्त्रीय विधाओं में उनकी रुचि थी। शाहजहां के दरबारी कलाकार जनार्दन भट्ट के पुत्र भाव भट्ट महाराजा की गुण ग्राह्यता से प्रभावित होकर बीकानेर आये। जिन्होंने अनूप संगीत विलास, अनूप संगीतांकुश, भाव मंजरी जैसे विश्व विख्यात सत्रह ग्रन्थों का सृजन किया। अनूप संस्कृत ग्रन्थागार में संगीत शास्त्र की 208 महत्त्वपूर्ण पांडूलिपियां संरक्षित हैं, जो विश्व में बीकानेर के सिवाय अन्यत्र उपलब्ध नहीं हैं। इसी ग्रन्थागार का लाभ उठाने विश्व के विभिन्न स्थानों से शोद्यार्थी बीकानेर आते हैं।
इन्हीं के शासनकाल में कथक आचार्य सांवलदास, जिसे एल. एन. गर्ग ने श्यामलदास कहा है तथा कार्तिकराम ने भी इस नाम की पुष्टि की है, जो जयपुर एवं बनारस के जानकीप्रसाद घराने से पूर्व के माने जाते हैं। इनके पिता जीवनदास भी बीकानेर रियासत में संगीत-नृत्य का कार्य करते थे। सांवलदास के नृत्य की चर्चाएं भाटों द्वारा प्रचलित की गई। इनके वंशजों में डेडराज, मंगतू जी, गोपीराम जी और आनन्द प्रकाश जी के नाम आते हैं। इन्हीं की परम्परा में जानकी प्रसाद जी और चुन्नीलाल जी जैसे नर्तक हुए, जिन्होंने बनारस घराने की नींव रखी। कथक के प्रथम घराने के अन्तर्गत बीकावत सरदारों के आश्रित जानकी प्रसाद घराना, जो चूरू जिले की सरदारशहर तहसील के मेलूसर गांव के निवासी थे, का आता है तथा दूसरा घराना बीदावतों के आश्रित कथक, जो बीदासर, गोपालपुरा, हरासर, चाडवास, शोभासर, बडावर, कडवारी आदि के निवासी थे, उनका था।
जानकी प्रसाद जी के कृतित्व पर प्रचुर मात्रा में कथक नृत्य की सामग्री बीकानेर में उपलब्ध है। जानकी प्रसाद घराने की कुछ शाखाएं आगे चलकर विकसित हुई, जो चूरू जिले के न्यामा और भालेरी गांव में पनपी। इस प्रकार हम देखते हैं कि जयपुर और बनारस दोनों ही घरानों की नींव बीकानेर संभाग के कथकों द्वारा रखी गयी। रायगढ़ और लखनऊ घराने के विकास में भी यहां के कलाकारों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। कथक के शास्त्रीय एवं प्रायोगिक दोनों ही पक्षों में यह क्षेत्र सदैव से ही सम्पन्न रहा है। जितनी प्रामाणिक साहित्य सामग्री बीकानेर में उपलब्ध है, उतनी अन्यत्र कहीं नहीं।
जयपुर के महाराजा रामसिंह शैव थे। उनके दुराग्रह के कारण वल्लभ सम्प्रदाय की दो प्रमुख गद्दियां – गोकुलचन्द जी तथा श्री मदनमोहन जी के स्वरूप जयपुर से बीकानेर पधारे। हवेली संगीत की कीर्तन परम्परा की चार शाखाएं यहां बनी। बीकानेर की कीर्तन शैली के कीर्तनकार शास्त्रीय संगीत के मर्मज्ञ रहे हैं। साथ ही हिन्दी साहित्य के भी अच्छे ज्ञाता रहे हैं। इस कारण यहां की कीर्तन परम्परा पेशेवर कीर्तनकारों से भिन्न रही। काव्य को भावानुकूल स्वर देकर शास्त्रीय संगीत के अनुशासन में प्रस्तुत करना यहां के कीर्तनकारों की विशेषता कही जा सकती है। साथ ही सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का पालन भी यहां के कीर्तनकार पूरी निष्ठा से करते रहे हैं। भावाभिव्यक्ति और सम्प्रेषण में जो परम्परा यहां विकसित हुई, हवेली संगीत के क्षेत्र में अन्यत्र देखने को नहीं मिलती।
बीकानेर जिले के कतरियासर ग्राम में अग्नि नृत्य का उद्गम हुआ। जसनाथी सम्प्रदाय के सिद्ध विशेष पर्वों पर जागरणों तथा जसनाथी ग्रहस्थ के ओसर-मोसर पर इस नृत्य को करते हैं। नृत्य के साथ गायन रागात्मक होता है। राग गायन की जसनाथ सम्प्रदाय की अपनी परम्परा है, उसी प्रकार नगारा वादन की भी अपनी शैली है, जो केवल इसी सम्प्रदाय के वादक ही प्रशिक्षण प्राप्त कर वादन कर सकते हैं। विश्व प्रसिद्ध यहां का यह अग्नि नृत्य जहां पर्यटकों के लिए रोमांचक नृत्य है, वहीं संगीत की दृष्टि से इसमें अनेक आध्यात्मिक, दार्शनिक, यौगिक क्रियाएं जुड़ी हैं, जो इस सम्प्रदाय के संगीत के अध्ययन के लिए अन्यत्र प्राप्त नहीं होती।
बीकानेर के राजकीय संग्रहालय में 9वीं से 16वीं शताब्दी की प्रस्तर मूर्तियां संकलित हैं, जिनमें नृत्य, गायन एवं वादन करती प्रतिमाएं अपने पुरातन सौन्दर्य, संस्कृति, इतिहास एवं कला की उत्कृष्ट प्रतिमाएं कही जा सकती हैं। बीकानेर शैली में बने राग-रागिनियों के चित्र भी यहां प्रदर्शित किये गये हैं। चीरा नृतय के चित्र लालगढ़ पैलेस में प्रदर्शित हैं। जल में नृत्य का दृश्य भी एक चित्र में दिखाया गया है। करोतों का नृत्य स्टेण्ड, कीलों पर नृत्य करने का स्टेण्ड भी जूनागढ़ में प्रदर्शित है। बीकानेर में बेरीसाल नगारा एवं भंवर ढोल भी महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं।
बीकानेर के पेशेवर संगीत जातियों में धवल, देहदड़ा, दमामी, कथक, पोलपात, कलावंत, ढाढी, मिरासी, राणा, भगतण, साध, जोगी, भोपा, नट आदि प्रमुख है। यहां के लोकगीत रागात्मक है। बीकानेर में राजकीय संगीत शाला में लोकगीतों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई थी। ऐसी व्यवस्था राजस्थान की किसी भी रियासत में नहीं थी। पेशेवर कलाकारों का चयन कर उन्हें श्रेष्ठ शास्त्रीय संगीत के उस्तादों से लोकगीतों की प्रस्तुति के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। ऐसा अवसर अन्यत्र कहीं नहीं रहा। बीकानेर के राजकीय बैण्ड में भी लोकगीत आरम्भ करने का श्रेय जाता है और आज भी यहां के बैण्ड से श्रेष्ठ कोई बैण्ड दिखाई नहीं देता, जो फरमाईश पूरी कर सके तथा लोकगीत को लोक स्वरूप में ही प्रस्तुत कर सके। प्रशिक्षण के कारण ही यहां की लोक गायिका पद्मश्री अल्लाह जिलाई बाई बन सकी। माड के सम्पूर्ण विकास का सम्पूर्ण श्रेय तो बीकानेर को ही जाता है। आज भी यहां सर्वप्रथम माड राग के प्रस्तुतकर्ता कलाकार हैं, जो मेवाड़ा, जंगला, पीलू, लूहर मल्हार जैसी देशी रागों की प्रस्तुति करने में सक्षम है। लोकगीतों की बंदिशों के उपयुक्त ताल का निर्माण भी यहां की संगीत शाला में किया गया। जिसमें गांठ चौताला, गधे की दुम, नकरा कहरवा, गांठ झूमरा ऐसे नाम हैं, जिसे अन्यत्र स्थान का कोई भी तबला वादक नहीं बजा सकता। लोक के सभी रंग यहां मौजूद हैं। विदेशी पर्यटक जो थोड़ी भी संगीत की समझ रखता है। जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, जैसलमेर के बाद सबसे अधिक यहां के लोक संगीत में रस लेता दिखाई देता है, क्योंकि इसमें कहीं बनावटीपन नहीं है। पूरी तरह सुगम, सरल, सहज लोक की गरिमा के अनुरूप।
संगीत शिक्षा मनोविज्ञान पर जितना कार्य बीकानेर के डॉ. जयचन्द्र शर्मा ने किया, उतना विश्व में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। कोई भी संगीत पद्धति का जानकार उनके बनाये उपकरणों के माध्यम से भारतीय संगीत की सुक्ष्मताओं को आत्मसात् कर सकता है। विश्व की सभी संगीत पद्धतियों का सुगमता से अध्यन डॉ. शर्मा की शिक्षा प्रदर्शनी से संभव है। श्री संगीत भारती में शोधार्थियों के अतिरिक्त पर्यटक भी अपनी संगीत पिपासा को शान्त करने आते रहते हैं। इस प्रकार इस नगर की संगीत परम्परा ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, कलात्मक, शैक्षणिक, आध्यात्मिक, नवाचार और विविध आयाम सभी दृष्टि से ग्राह्य है। जिनमें विरासत की खूबियों के साथ नव प्रयोगों को समय-समय पर विश्व मंचों पर प्रस्तुत किया है। यहां के संगीत ने विश्व बंधुत्व, भाईचारा, सर्वधर्म समभाव, विश्व शान्ति, मानवीय सद् संस्कृति को बढ़ावा देने की संभावनाओं को सदैव उजागर करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है।
– डॉ. मुरारी शर्मा