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Saturday, November 23

व्यंग्य- “ककऊनादा” – संजय पुरोहित

एक दिन हमने देखा, अपने मोटे पेट पर हाथ फेरते हुए हैप्पी प्रसाद मुस्कुराते हुए जा रहे थे। हैप्पी प्रसाद शिक्षक हैं, लेकिन उनके शिक्षा के जीवन में शिक्षण के क्षण ढूंढने से भी नहीं लाधते।
बेसिकली उनकी घड़त ठण्डी मिट्टी की है। उनका नाम हैप्पी पड़ा ही इसलिये था कि जनमते ही जो बेमतबल मुस्‍कुराना शुरू किया था, उस पर आदिनांक एक्टिव हैं।
अपने जीवन के आधे बसंतों को क्रॉस करने के बाद एक दिन अचानक एक बेहद घटिया क्‍वालिटी के कवि की सर्वोच्‍च घटियात्‍मक स्‍तर की कविता उनके हत्थे चढी। हैप्पी प्रसाद को लगा कि अरे! जब कविता ऐसी हो सकती है तो मल्‍लब ये है कि वे भी कवि हो सकते हैं।
बस, उसी दिन से लिखना शुरू कर दिया। क्या लिखा, ये अलग टापिक है, पर लिखा, ये करन्ट टॉपिक है। उन्होंने जो कुछ लिखा उसका मूल्यांकन आज तक कोई माईका लाल नहीं कर पाया है। हैप्पी प्रसाद को लगता है कि लोग उनके नैसर्गिक हुनर के प्रति जैलसी रखते है। बात जो भी हो, उनका फण्डा क्लियर है। मान बढे, स्‍टेबल रहे या घटे, हैप्पी प्रसाद दोनों कण्डीशन में हैप्पी। ”अरे हैप्पी प्रसाद जी, कभी हमको भी इस डायन महंगाई के दौर में हंसने के नुस्खे दे जाओ।” हमने हैप्पी प्रसाद को सेंटेंसमय अनुनय किया। हैप्पी प्रसाद ने हमको देखा, एक फ्लाइंग स्माईल दी। अपने भारी कदमों का डायरेक्शन हमारी तरफ किया। हमने हैप्पी सिंह को आते देख कर मूढा आगे करते हुए बैठने का इंडीकेशन दिया। हैप्पी प्रसाद जी मूढे पर जैसे तैसे बैठते हुए बोले,”हैप्पी प्रसाद नहीं हैप्पी प्रसाद ‘ककऊनादा’ कहिये।’ ”ककऊनदा ?” हमने भी आपके समान ही इस शब्द को पहली बार सुना था। पहले पहल तो हमको लगा कोई ऊदबिलाव या फेर झाऊ चूहे का नाम है।
हमारी सोच को पूर्ण विराम देते हुए हैप्पी प्रसाद बोले, ”देखो भाई, लेखक यदि उपनाम लगाता है तो उसका रिस्पेक्ट रेट बढ़ जाता है। जैसे हरिवंश राय का ‘बच्चन’, सुमित्रा नंदन का ‘पंत’। मैंने इस ‘ककऊनादा’ के बारे में कहीं पढ़ा-सुना था, तो सोचा कुछ खास है इसलिये इसे ही वापरा जाये’ उसको टोकते हुए हमने कहा, ”भाई मेरे, ये ‘बच्‍चन’, ‘पंत’ उन महान कवियों के उपनाम नहीं, बल्कि उनकी जाति थी।”
हैप्पी प्रसाद ने खिसियाई इस्माईल फेंकते हुए कहा, ”छोड़ो उनको, ये बताओ, ‘ककऊनादा’ तुम्हे कैसा लगा ?” हमारी समझ की कुतड़ी फिर कादे में फंस गयी। हमको परेशान देखकर हैप्पी प्रसाद ने खुद ही बताना शुरू किया, ”देखो तुम तो जानते हो कि मेरे पोर-पोर में साहित्य हाऊसफुल भरा है। मैं किसी एक विधा में बंधा नहीं हूं।”
”हम्‍म..हम्‍म..।” हम हां हां कर रहे थे। हैप्‍पी प्रसाद बोलते जा रहे थे, ”एक दिन मैं अपने रीडींग रूम में बैठ कर अपने रचे रजिस्टरों को देख रहा था, अचानक मुझ पर सरस्वती की किरपा हुई। मैं अपने रजिस्टरों को देखता रहा और मेरे उपनाम का एक एक शब्द उभरता रहा।” अब हम थोडे जिज्ञासू हो उठे। हैप्पी प्रसाद कन्टीन्यू रहे, ”मैंने ऐसी ऐसी कहानियां लिखी है कि खुद मेरे समझ में नही आती, यू नो हाईली इन्टेलेक्च्युअल…. तो कहानीकार का ‘क’, एण्‍ड यू नो, कवि तो मैं विलक्षण ही हूं सो कवि का ‘क’, पिछले सोमवार को एक उपन्यास शुरू कर दिया है तो उससे ‘ऊ’ ले लिया।” कहते कहते हैप्पी प्रसाद जी का व्यक्तित्व विराट हो चला, आंखें ऊपर उठा ली, हाथ भी भावों में भरकर ऊपर उठ गये। वे एकालाप मोड में चले गये। हमारी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। हैप्पी प्रसाद बोलते रहे,”मेरे जीवन के अगले बसंतों में एक नाटक लिखने की पिलानिंग है, उपनाम में बार बार चेंज तो होगा नहीं, इसलिये नाटककार का ‘ना’ भी अभी ही ले लिया…और मेरे भाई, वो जो मेरी लार्जर देन लाईफ इमेज है, ‘दार्शनिक’ की, उससे लिया ‘द’ तो इस प्रकार मुझे मिला मेरा उपनाम,’ककऊनादा’।” इतने सुपरलेटिव संवाद बोलने के बाद हैप्पी प्रसाद जी ने नीचे देखा। नीचे कंकरीले पथ पर हम चारों खाने चित्त पड़े थे।

संजय पुरोहित

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