कद बड़ा होना
मुहावरा नहीं है इस कविता में
या यूं ठीक रहेगा कि
तब हमारी बढ़ने की उम्र थी ।
कुर्ते पजामे च्यार आँगळ नीचे
और चप्पल की जोड़ी दो नम्बर बड़ी
इसलिए खरीदी जाती थी कि
तंगी को मात दे सकें
पिता थे भले ही अनपढ़ पर बड़े दूरदर्शी ।
हम पर हंसती दुनिया
और हम बड़े राजी थे
नई पोशाक में।
ये पोशाक भी
जब ऊंची हो जाती
इस बार मां की बारी होती
अपनी करामात दिखाने की
पायँचों की तुरपाई उधेड़
फिर नीचा कर देना
इन्हीं कपड़ों को।
हम तंगी का
साइन बोर्ड नहीं थे
मितव्यता से जीवन जीने की
अद्भुत कला के
नायाब नमूने से भी थे।
– विनोद स्वामी