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Thursday, November 21

इस संकल्प से आज की गुरू पूर्णिमा हो सकती है सार्थक

अभिनव डेस्क। इस संसार में एक मनुष्य के लिए तीन लोग सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। वे होते हैं माता, पिता और गुरू। माता-पिता व्यक्ति को संसार में लाते हैं, उसका पालन- पोषण करते हैं। उसे उठना- बैठना, चलना- फिरना, बोलना, खाना- पीना और सामान्य व्यवहार करना सिखाते हैं, इस दृष्टि वे वे मनुष्य के प्रथम गुरू होते हैं। वे माता- पिता के रूप में भी पूजनीय होते हैं और गुरू के रूप में भी। प्रत्येक मनुष्य संसार में कुछ विशिष्ट उद्देश्य लेकर आता है लेकिन उसके इन उद्देश्यों के बारे में न तो वह जानता है और न ही दूसरा कोई जानता है। उसे जगत में आकर आखिर करना क्या है और जो करना है वह किस तरह से करना है, इसका आंशिक अनुमान प्रथम गुरू माता- पिता को हो सकता है लेकिन यह पूरी स्थिति तो केवल और केवल गुरू ही स्पष्ट कर सकता है।

गुरू शब्द का सामान्य अर्थ है- बड़ा। जो व्यक्तित्व हमसे ज्ञान और गुणों में बड़ा हो, जिसका अपने कर्मक्षेत्र का अनुभव भी बड़ा हो, जिसमें अपना ज्ञान लोगों को देने की उत्कंठा हो, जो सहज हो, सरल हो, सौम्य हो, जिसमें सिखाने का सामर्थ्य हो, वह गुरू पद का मान रख सकता है। गुरू का पद ईश्वर से भी अधिक महत्वपूर्ण होता है। शिष्य के लिए इस सृष्टि में माता, पिता और गुरू से अधिक बड़ा कोई नहीं होता। माता, पिता, और गुरू की आज्ञा का पालन करने में ही ही व्यक्ति का हित समाहित होता है। वह जीवन में चाहे कितने ही उच्च स्थान पर क्यों न पहुंच जाए लेकिन अपने माता, पिता और गुरू से बड़ा कभी नहीं बन सकता है। माता, पिता और गुरू की अवहेलना करने से ईश्वर रुष्ट होते हैं। उनकी सेवा करने से और उनकी आज्ञा का पालन करने से ईश्वर प्रसन्न होते हैं। भारतीय संस्कृति में प्रत्येक दिन मातृ दिवस है, प्रत्येक दिन पिता दिवस है और प्रत्येक दिन गुरू पूर्णिमा है। इन तीनों का ऋण व्यक्ति कभी नहीं चुका सकता है।

भगवान श्रीकृष्ण सबके गुरू हैं, क्योंकि उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से सभी मनुष्यों को आत्म कल्याण का मार्ग दिखाया है। श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत के गुरू हैं। आज की शिक्षा पद्धति पाश्चात्य पद्धति है। इसमें गुरू को टीचर या शिक्षक कहकर पुकारा जाता है। पाश्चात्य पद्धति में टीचर वह व्यक्ति है जो शुल्क लेकर सेवा देता है। इसलिए टीचर या शिक्षक के प्रति वह सम्मान का भाव नहीं रह गया है जो एक गुरू के प्रति हुआ करता है। प्राचीन भारत गुरूकुलों का देश था जहां जीवन भर तपे हुए ऋषि- मुनि, साधु- संन्यासी गुरू के रूप में ज्ञान का अमृत अपने शिष्यों को पिलाया करते थे। हमारी महान भारतीय संस्कृति और ज्ञान सागर को अपने भीतर संचित रखने वाले उपनिषद गुरू- शिष्यों के संवाद ही तो हैं। क्या मैकाले की शिक्षा पद्धति में ऐसा महान और कालजयी इतिहास मिल सकता है? आज गुरू पूर्णिमा के पावन अवसर पर यही निवेदन है कि ग्लोबलाइजेशन की अंधी दौड़ को छोड़कर भारतीयता की ओर लौटिए। गुरू को मान- सम्मान दीजिए और गुरूजन भी अधिकाधिक अर्थ उपार्जन का लक्ष्य त्याग कर अपने ज्ञान को योग्य शिष्यों में बांटें। हमने पाश्चात्य संस्कृति को पूरी तरह जीकर देख लिया है। अब भारतीयता और सनातन संस्कृति की तरफ लौटना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है।

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