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Thursday, November 21

दृष्टिकोण: पार्टियां अपने नेताओं को अनुशासन कब सिखाएंगी

~ संजय आचार्य वरुण

जब भी सोशल मीडिया के माध्यम से देश और प्रदेश के नेताओं के भाषण सुनने का अवसर मिलता है तब मन बड़ा अशांत हो जाता है। बार- बार दिमाग में यही सवाल आता है कि ‘ये कहां आ गए हम..’ कच्चे रास्तों पर चलते- चलते हम अर्थात हमारी वर्तमान राजनीति, वहां पहुंच गई है, जहां बहुत अंधेरा है। इस अंधेरे में हर किसी को सत्ता के रोशन गलियारे और दमकती हुई कुर्सी तो दिखाई देती है लेकिन इंसान, इंसानियत, मर्यादा और शालीनता जरा भी दिखाई नहीं देती।

पता नहीं किसने आज के छोटे- बड़े लगभग सभी नेताओं के दिमागों में यह डाल दिया है कि दूसरी पार्टी और विचारधारा का हर व्यक्ति हमारा शत्रु होता है। तीन- चार दशक पहले तक विपक्षी केवल विपक्षी ही होता था, उस समय विरोध सामने वाले की विचारधारा का होता था, और विरोध भी तार्किक था, विरोध करने के लिए विरोध नहीं किया जाता था। उस जमाने में विरोध का स्तर व्यक्तिगत नहीं था। जो बात देश और जनता के हित में नहीं होती, उसके लिए अपने तर्क और तथ्य रखे जाते थे लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज देश में राजनीति अपने सबसे निचले पायदान पर है। पता नहीं राजनीतिक दल क्यों अपने नेताओं के अशिष्ट भाषणों को सुनकर भी नजरअंदाज कर देते हैं।

अभद्र, अशिष्ट नेता अपने विपक्षी पर व्यक्तिगत टिप्पणियां करके जनता में खुद को निडर, निर्भीक और दबंग साबित करना चाहते हैं। वे इस भ्रम में होते हैं कि इससे उनकी लोकप्रियता और जनाधार बढ़ेगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं होता। इनको समझना चाहिए कि आज का वोटर पढ़ा-लिखा और समझदार है। वह मंच पर आपकी बेहूदगी देखकर उस समय कुछ नहीं बोलता लेकिन आपको तौल जरूर लेता है।

जब आप अपने भाषण में विपक्षी नेताओं का नाम लेकर अपमान करते हैं, उनकी हंसी उड़ाते हैं तो इसका भुगतान उस नेता को नहीं बल्कि आपको और आपकी पार्टी को करना पड़ता है।
ये राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शिष्ट, शालीन और ऊंची सोच रखने वाले नेताओं का देश है। ये चंद्रशेखर, सोमनाथ चटर्जी और ज्योति बसु जैसे नेताओं का देश है। क्या इन्होंने कभी विरोध नहीं किया ? अवश्य किया लेकिन वह विरोध वैचारिक स्तर पर देशहित में होता था। आज के नेताओं को यू ट्यूब और संसद की लायब्रेरी में संरक्षित पुराने नेताओं के भाषण सुनाने चाहिए। इनको यह सिखाने की आवश्यकता है कि आपको पब्लिक मीटिंग में किस तरह और किन विषयों पर बोलना है। नेता पता नहीं यह क्यों भूल जाते हैं कि ‘बात निकली है तो दूर तलक जाएगी।

‘ जिस व्यक्ति की भाषा और आचरण में अनुशासन नहीं होता, क्या वह दूसरों पर शासन करने के योग्य हो सकता है ? इस मामले में मीडिया भी कम दोषी नहीं है। मीडिया के अनेक प्लेटफार्म्स अपनी टी आर पी बढ़ाने के चक्कर में नेताओं के अभद्र भाषण ‘नेताजी के बिगड़े बोल’ के हैडिंग के साथ प्रचारित करते हैं। दरअसल, जब मीडिया और अखबार इन ‘बिगड़े बोल’ का बहिष्कार करेंगे, तब नेताजी बोलते समय जरा सावधान रहेंगे। वरना अभी तो उल्टा- सीधा बोलकर मुफ्त में उनका जबरदस्त प्रचार हो रहा है।

नेताओं को ये समझना चाहिए कि अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल करके आप चर्चित तो हो जाएंगे लेकिन जनता का विश्वास नहीं जीत पाएंगे। ऐसे कई नेताओं के नाम गिनाए जा सकते हैं जिनको उनकी अमर्यादित भाषा और तथाकथित ‘दबंगई’ के चलते जनता ने बेरोजगार करके घर बैठा दिया है।
राजनीतिक दलों को अपने नेताओं के लिए अनुशासन की सीमाएं तय करनी चाहिए। साफ सुथरी राजनीति स्थापित करने के लिए यह कदम उठाना बहुत जरूरी है।

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