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Sunday, November 24

कब बदलेगा आलम… कब सुधरेंगे हालात

~ संजय आचार्य वरुण

मैंने अपने जीवन की चार दशक की यात्रा मुसलसल इसी शहर बीकानेर में पूरी की है। तेरह- चौदह साल की उम्र से चुनाव, विधायक, मंत्री, सभापति और महापौर आदि देखते आ रहे हैं। इन सबको आते- जाते देखने के साथ ही इस शहर को भी देखा है और आज भी देख रहे हैं। कुछ स्वाभाविक परिवर्तनों के अलावा मोटे तौर पर सिर्फ चेहरों को ही बदलते देखा है। शहर आज भी लगभग वैसा ही है यानी शहर की व्यवस्थाएं आज भी यथावत हैं।

मेरे मस्तिष्क में कई दशकों के चुनावी वादे, दावे और भाषण स्मृतियों और छवियों के रूप में बचे पड़े हैं। इस बात का जरा भी आश्चर्य नहीं होता कि बीकानेर के नेताओं के दावे, वादे और भाषण आज भी तीस- चालीस साल पुराने ही हैं, उन्हें अपनी स्क्रिप्ट बदलने की जरूरत इसलिए नहीं पड़ी क्योंकि शहर ही नहीं बदला तो भाषण कैसे बदलेंगे ?

बीकानेर में सबसे अधिक दफा विधायक और मंत्री रहे एक राजनेता अपने हर साक्षात्कार में शोभासर तथा बीछवाल जलाशयों का जिक्र करना नहीं भूलते लेकिन हर गर्मी में पानी की किल्लत, टैंकर लीला और मटकियां फोड़ने का प्रदर्शन कई दशकों से अनवरत चल रहा है। रेलवे फाटकों पर राजनीति करने का सिलसिला तो आधी शताब्दी से ज्यादा समय से चल रहा है। आगे कब तक चलेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।

इस शहर में नगर परिषद था तब भी आवारा और पालतू पशु सड़कों पर मटरगश्ती करते, बुजुर्गों को पटकते और यातायात को बाधित करते देखे जाते थे, वर्तमान में भी न तो पशुओं की जगह बदली है और न ही भूमिका। आज नगर निगम बन जाने के इतने वर्षों के बाद केवल शहर का दर्जा बदला है, हालात नहीं। स्थानीय प्रशासन समझे इस बात को कि कुछ रास्तों पर बैरिकेड्स लगाकर, गाड़ियों को इधर से उधर निकालने मात्र से कुछ नहीं होगा। शहर के बड़े बाजारों, मुख्य रास्तों पर दुकानों के अतिक्रमण, पशुओं के घूमने- फिरने और अंदरूनी शहर के छोटे-छोटे पशु पालकों द्वारा दिन में अपने पशुओं को सड़कों, गलियों, चौक- मौहल्लों में छोड़ देने की व्यवस्था में भी सुधार करना आवश्यक है।

बहुत कड़वी बात है लेकिन सच है कि कुछ विश्वविद्यालय, कॉलेज और अस्पताल और महंगे कोचिंग इंस्टीट्यूट खुल जाने मात्र से कोई शहर विकसित नहीं कहलाता। शहर में जलापूर्ति का वर्णन तो ऊपर किया ही जा चुका है अब प्रस्तुत है बिजली का हाल। निजी कम्पनी के हाथों में होने के बावजूद इस शहर में बिजली कब रूठकर, कितने घंटों के लिए चली जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। ये बीकानेर है साहब! इक्कीसवीं सदी के भारत का एक महानगर।

यहां हैलमेट के लिए चालान तो काटे जाते हैं लेकिन आम लोगों को यातायात नियमों की जानकारी नहीं दी जाती। शहर की आधी से ज्यादा गाड़ियों के तो इंडीकेटर्स भी काम नहीं करते और हाथ से साइड लेकर मुड़ना बहुत कम लोगों को रास आता है। जहां जगह मिल गई वहीं, अपना वाहन खड़ा कर दिया, सड़क पर वाहन रोककर वाहन पर बैठे- बैठे ही दो लोग घर- परिवार और अपनी सुख- दुख की बातें करने लगते हैं, पीछे जाम लगता है तो लगता रहे। सड़क दुर्घटनाएं रोकने के लिए हैलमेट के साथ ही इन सब चीजों पर ध्यान देना भी जरूरी है।

भगवान इंद्र देव शायद इस विकसित महानगर के बारे में व्यक्तिगत रूप से जानते हैं इसीलिए यहां कई घंटों वाली भारी बरसातें नहीं होती। यहां दो घंटों की एक बरसात ही व्यवस्थाओं की असलियत सामने ला देती है। यहां एक बारिश में खुद नगर निगम के द्वार पानी से लबालब हो जाते हैं, ऐसे में मुम्बई जैसी बारिश यहां होने लग जाए तो पता नहीं क्या होगा।

कहने को बहुत कुछ है लेकिन बताने से कोई लाभ नहीं, सबको सब कुछ पता है। चुनाव आते हैं, जीतने वाले जीतते हैं, पांच साल सत्ता का सुख भोगते हैं, उद्घाटन- अनावरण करने शहर में आते हैं। वास्तविक अर्थों में शहर वहीं का वहीं उनींदा सा ऊंघता सा पड़ा रहता है। कैलेण्डर बदलते हैं, वोटर्स बदलते हैं। बाकी सब कुछ वही और वैसा ही रहता है, जो पहले था। ये सवाल भी नहीं बदलता कि कब बदलेगा आलम और कब सुधरेंगे हालात?

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