संजय आचार्य वरुण
ये शहर बीकानेर है साहब! ज़िन्दगी को पूरी जिन्दादिली से जीने वाला एक शहर। एक ऐसा शहर जो जीवन के सांस्कृतिक मूल्यों को भारत के दूसरे किसी शहर से ज्यादा अपने भीतर संजोए रखता है। जैसा कि अनेक बुद्धिजीवी कहा करते हैं कि धर्म प्रदर्शन की चीज नहीं, यह तो ‘प्राइवेट प्रैक्टिस’ है। किन्हीं अर्थों में हो सकता है कि उनकी बात कुछ हद तक सही हो लेकिन अगर इस शहर के वाशिन्दे बीकानेर की प्राचीन मूल संस्कृति को न जानने वाले जबरन स्थापित इन बुद्धजीवियों की बात मान लेते तो ये शहर कभी भी धर्म नगरी, छोटी काशी और राजस्थान की सांस्कृतिक राजधानी आदि अलंकारों से विभूषित न किया जाता।
ये वो शहर है जहां प्राइवेट कुछ नहीं होता। यहां तो परिवार की खुशियां और ग़म भी घर में नहीं, चौक के पाटे पर सबके साथ मनाए जाते हैं। धर्म को प्राइवेट प्रैक्टिस कहने वाले लोग ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के मूल भाव को जीने वाले बीकानेर को अभी तक समझ नहीं पाए हैं।
यहां किसी परिवार से उठने वाला ‘मायरा’ पहले चौक के पाटे पर रखा जाता है और मौहल्ले के बुजुर्गों से अनुमति लेकर उठाया जाता है।
किसी घर में मृत्यु होने पर बैठक घर में नहीं गली- मौहल्ले अथवा चौक में होती है। ये तय है कि चार किताबें पढ़कर इस शहर को नहीं समझा जा सकता। बहरहाल, धर्म और संस्कृति को ये बीकानेर शहर पूरी शिद्दत के साथ मिलजुल कर जीता है। यही कारण है कि यहां हर पर्व, त्यौहार और अवसर को डूबकर मनाया जाता है।
आज चूंकि मौका होली का है तो बात करते हैं बीकानेर की होली की। होली इस शहर के लिए साल में एक बार आने वाला फकत दो दिन का त्यौहार नहीं है। होली इस शहर के लिए कुछ दिनों तक पूरे मन से बिंदास जीने का अवसर है।
यहां के लोग होली को पूरे वर्ष तक अपने भीतर सहेज कर रखते हैं, वे उसे एक पल भी विस्मृत नहीं होने देते हैं और ‘फागण’ के दस्तक देते ही बीकानेरियों के भीतर की मौन होली पूरी तरह मुखर हो उठती है। यहां की होली में केवल बाजार में बिकने वाले रंग ही दिखाई नहीं देते बल्कि जीवन का हर वो रंग जो हमारी संवेदनाओं में कहे- अनकहे रूप में शामिल है, यहां की होली में अपनी सम्पूर्ण चमक के साथ दिखाई देता है।
बीकानेर के पाटों पर चलती चर्चाओं में ऐसे सैकड़ों नाम गिनाए जाते हैं जिनका पूरा जीवन ही होलीमय रहा था।वर्तमान में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो स्वयं होली के लिए हैं और होली उनके लिए है। ग्लोबलाइजेशन के साथ बहुत प्रैक्टिकल हो चुकी आज की दुनिया में किसी त्यौहार और संस्कृति के लिए इतना जुनून तो बस बीकानेर में ही देखा जा सकता है।
बीकानेर की होली के रंग बीकानेर के आकाश से भी बहुत दूर सात समंदर पार तक देखे जाते हैं। हमारे लिए त्यौहार कैलेण्डर का छुट्टी वाला लाल खाना मात्र नहीं हैं, त्यौहार हमारे अस्तित्व से जुड़ा हुआ जीवन का एक उल्लास है, त्यौहार परेशानियों, उलझनों, तनावों, चिन्ताओं और वैमनस्य के जालों को काटकर जीवन को उत्सव बनाता है।
दो दिन पहले जब अभिनव टाइम्स की टीम, जिसमें मेरे साथ ऊर्जावान पत्रकार रमेश भोजक समीर, युवा पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक शैलेष आचार्य, अभिनव टाइम्स के प्रबंधक ललित और मैं स्वयं था, हमने इस शहर की गली- गली में होली को जीवन से गले मिलते देखा। नत्थूसर गेट का वह दृश्य अभी भी ज्यों का त्यों याद है जहां मुरली जी की पान की दुकान के पीछे उन्हीं के साफा- पगड़ी हाउस के पास चौकी पर एक दुबले पतले, छोटे कद के एक सज्जन बैठे थे, उस समय आकाश में घनघोर बरसात का माहौल बन रहा था, ऐसे लगता था कि आज जमकर बारिश आएगी और बीकानेरी होली के सारे कार्यक्रम धरे के धरे रह जाएंगे। मैंने देखा कि वे सज्जन आकाश की तरफ हाथ जोड़कर अकेले ही भगवान से बहुत सहज अंदाज में बात कर रहे थे कि ‘करनौ है जिकौ अबार ई कर दै, सिंझ्या ने अचारजों अर मुरनायक जी रै चौक में रम्मत है, बै में विघन ना घाले महादेव।’ मैं उन्हें दूर से देख और सुन रहा था, कुछ देर ठिठका खड़ा रहा, कुछ बोल नहीं पापा, बस इस बीकानेर की धरती को मन ही मन प्रणाम कर दिया।
मजे की बात ये है कि वे सज्जन न तो भांग पिये हुए थे, और न ही कोई अन्य नशा किए हुए थे, फिर मैंने उनसे करीबन आधे घंटे तक बातें की, उन्होंने सुपारी खिलाई, चाय की मनुहार की। तभी तो कहना पड़ता है कि ये बीकानेर है साहब! शहर को लेकर कहने के लिए इतना कुछ है कि कई किताबें लिख दूं, लेकिन अपनी ही दो लाइनों से अपनी बात को विराम देता हूं कि- टुकड़ा टूटा स्वर्ग से, गिरा धरा पर आय ।
वो टुकड़ा ही अब वरुण, बीकानेर कहाय।
अभिनव टाइम्स की ओर से आपको रंगपर्व होली की बहुत बहुत बधाई और मंगलकामनाएं।