संजय आचार्य वरुण
बेहद अफसोसनाक दौर है ये। साहित्य, संस्कृति और कलाएं भी तुच्छ स्वार्थों से भरी ओछी राजनीति का शिकार हो रही हैं। अकादमियों की नियुक्तियां हों, पुरस्कारों के निर्णय हों अथवा आयोजनों में भागीदारी करवाने की बात हो, आजकल हर जगह योग्यताओं को बेझिझक होकर नज़र अंदाज करने का फैशन सा चल पड़ा है। इंसान में जमीर नाम की कोई चीज बची ही नहीं है। राजनीति का चरित्र तो कई दशकों पहले ही दागदार हो चुका था, अब उसी घटिया राजनीति का प्रवेश साहित्य, कला और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी हो चुका है। इसका कारण यह है कि इन क्षेत्रों में वे लोग आ गए हैं, जो इन क्षेत्रों के हैं ही नहीं, उनका उद्देश्य केवल पद, पैसा, प्रतिष्ठा, प्रभाव और पुरस्कार पाना होता है। साधना, अध्ययन, चिन्तन- मनन और निस्वार्थ समर्पण से इनका दूर- दूर का भी कोई नाता नहीं है। चूंकि ये राजनेताओं और अधिकारियों के आसपास ही मंडराते रहते हैं, इसलिए जब कुछ भी बंटता है तो ये सबसे पहले ये अपनी अपनी झोलियां भर लेते हैं, बाद में इनकी छोड़ी गई जूठन वास्तविक रूप से योग्य लोगों के हिस्से आती है। ये सिलसिला निर्बाध रूप से इसलिए चल रहा है क्योंकि कोई भी इस ‘गोधा वाद’ का विरोध नहीं कर रहा। सब कुछ जानते समझते हुए भी जो योग्य लोग मुंह पर पट्टी बांधे बैठे देख रहे हैं, उनका अपराध भी कम नहीं है।
पिछले दिनों बीकानेर स्थित एक भाषा अकादमी में चली धक्का- मुक्की की राजनीति से भला कौन अनभिज्ञ है। जिन लोगों का साहित्य से दूर – दूर का भी वास्ता नहीं वे अकादमी की समितियों में शामिल कर लिए गए हैं। बीकानेर के प्रशासन को हर अवसर पर मुशायरा ही आयोजित करना क्यों याद आता है? कवि सम्मेलन, राजस्थानी कवि सम्मेलन भी तो किए जा सकते हैं। मुशायरों के आयोजन में भी शाइरों का चयन तो कम से कम निष्पक्ष तरीके से किया जाए।
बीकानेर एक समृद्ध साहित्यिक- सांस्कृतिक परम्पराओं वाला शहर है। कुछ लोग साहित्य, कला संस्कृति की तमाम उपलब्धियों पर काबिज हो जाना चाहते हैं। अकादमियों, आयोजनों और पुरस्कारों में योग्यता को नज़र अंदाज किया जाना सर्वथा अनुचित है। हर जगह कुछ लोग मिलकर ‘सब कुछ’ तय कर लेते हैं। जो लोग साहित्य को जीते हैं, साहित्य को ओढ़ते- बिछाते हैं, वे घरों में बैठे रहते हैं और जिन्हें खुद को नुक़्ते का ज्ञान नहीं वे तय करते हैं कि कौन कवि है, कौन शाइर है, कौन अकादमी का सदस्य बनने के लायक है या कौन नहीं है। साहित्य के प्रति साधना, समर्पण और आस्था का भाव रखने वाले लोगों को ‘गलत’ का विरोध पुरजोर तरीके से करना चाहिए। राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारी गण से विनम्र निवेदन है कि वे सही और सुयोग्य लोगों को आगे आने के अवसर प्रदान करें। साहित्य और कलाएं मानवता के भविष्य से जुड़े हुए विषय हैं, इन्हें हल्के में लेकर हम अपनी आने वाली नस्लों के साथ अन्याय कर रहे हैं