संजय आचार्य वरुण
डॉ. गोपाल जोशी मेरे लिए राजनीति के सबसे सुलभ राजनेता थे। इसके दो कारण रहे, एक तो यह उनका स्वभाव ही था और दूसरा मेरे पिताजी स्व. गौरीशंकर आचार्य ‘अरुण’ से उनकी घनिष्ठ मित्रता। अपने जीवन का आखिरी चुनाव, उन्होंने लड़ा जरूर था लेकिन उसमें जरा भी रुचि नहीं ली, क्योंकि तब तक उन्हें अपने राजनीतिक जीवन में तृप्ति और पूर्णता का अनुभव हो चुका था । बिना प्रयासों के लड़े गए चुनाव में भी वे बहुत कम अंतर से पीछे रहे। उनके वोटर उन्हें इसलिए पसंद करते थे, क्योंकि अपने विधायक से मिलने के लिए उन्हें रत्ती भर भी जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती थी। सबको पता था कि यदि गोपाल जोशी जी बीकानेर में हैं तो उनसे उचित समय पर ‘होटल जोशी’ के कमरा नम्बर 101 में सहजता से मिला जा सकता है । गोपाल जोशी जी जैसी स्वच्छ, बेदाग़ और ठरके से की जाने वाली राजनीति कम ही लोग कर पाते हैं। जहां तक मुझे उनका सानिध्य मिला, उसमें मैंने यही पाया कि उनके पूरे व्यक्तित्व में दोगलेपन के लिए कहीं कोई स्थान नही था। उन्होंने कभी भी किसी व्यक्ति को ‘भरोसे’ नहीं रखा। काम यदि हो सकता है तो ‘हां’ कहते थे और यदि काम होने की संभावना नहीं है तो स्पष्ट रूप से मना कर देते थे। उनके आलोचक भी उनके इस गुण के कायल रहे। लगभग छह दशक की राजनीति उन्होंने अपनी शर्तों पर की लेकिन इसके बावजूद वे बेहद सफल और लोकप्रिय नेता बने रहे । सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले व्यक्तित्व का किस तरह से गरिमामय और सधा हुआ होना चाहिए, ये सीख गोपाल जोशी के जीवन से ली जा सकती है। राजनीति करने वालों को गोपाल जोशी जी के इस गुण को अपने जीवन और व्यवहार में उतारना चाहिए। लगभग साढ़े चार दशक डॉ. गोपाल जोशी कांग्रेस में रहे लेकिन वहां उनका मूल्यांकन ठीक तरह से नहीं हो पाया । मुझे यहां यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि उनके जैसे वरिष्ठ, उच्च शिक्षित, और अनुभवी नेता की सही परख भाजपा में भी नहीं हुई, क्योंकि अगर ऐसा होता तो वे भाजपा सरकार में किसी महत्वपूर्ण विभाग के मंत्री होते। वे लगभग एक दशक से भी अधिक समय तक पुष्करणा ब्राह्मण समाज के शीर्ष संगठन अखिल भारतीय पुष्टिकर सेवा परिषद के अध्यक्ष रहे, जब तक वे रहे तब तक समाज की एकता अक्षुण्ण रही, उनके पद त्याग करते ही समाज दो धड़ों में बंट गया। बहरहाल, गोपाल जोशी राजस्थान की राजनीति के सबसे अध्ययनशील राजनेता थे। किताबों से उनका गहरा नाता हमेशा बना रहा, इसीलिए उनके उद्बोधन न केवल भाषाई स्तर पर अपितु तथ्यात्मक दृष्टि से भी सशक्त होते थे। उनके पास बैठने का जब भी अवसर मिला, डेढ़- दो घण्टे कब बीत जाते, पता ही नहीं चलता। उन्हें मुकेश जी का गाया हुआ गीत ‘ज़िन्दा हूं इस तरह कि ग़मे ज़िन्दगी नहीं, जलता हुआ दिया हूं मगर रोशनी नहीं’ बहुत पसंद था। वे अपने अभिन्न मित्र और मशहूर शाइर लाला कामेश्वर दयाल ‘हजीं’ की ग़ज़ल के शे’र भी अक्सर गुनगुनाया करते थे। उनको जानने वाला कोई भी शख़्स कीर्तशेष पं. जसकरण गोस्वामी और डॉ. अज़ीज़ अहमद सुलेमानी जी से उनकी गहरी दोस्ती और हर शरद पूर्णिमा की रात होटल जोशी की छत पर होने वाले साहित्यिक सम्मेलन से भला कैसे अनजान रह सकता था। आज गोपाल जी दैहिक रूप से भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके आकर्षक व्यक्तित्व की सुगंध बीकानेर की हवाओं में दीर्घकाल तक रहेगी। जयंती पर कोटि कोटि नमन।