लीला भोजक
“हेरंब अब अवलंब देकर विघ्नहर कह लाइए, भगवान भारतवर्ष को फिर पुण्य भूमि बनाइए” कविश्रेष्ठ मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्तियां वर्तमान परिप्रेक्ष्य में एकदम सटीक बैठती है। आज भारत की प्रतिष्ठा को सोने की चिड़िया के रूप में पुनर्स्थापित करने की महत्ती आवश्यकता है और इस आवश्यकता को पूर्ण करने का एकमात्र साधन शिक्षा है। शिक्षा वह साधन है जिसके माध्यम से ज्ञान चक्षु खुलते हैं। हम अपने विवेक को जाग्रत कर उचित समय पर उचित निर्णय लेना सीख सकते हैं। ‘सा विद्या या विमुक्तये’ वास्तव में शिक्षा वही है जो ना केवल जीवन की विविध विषम परिस्थितियों से मुक्ति प्रदान करें अपितु मोक्ष भी प्रदान करें। मोक्ष से तात्पर्य केवल जीवनमुक्ति नहीं वरन् दुर्भावनाओं एवं दुविधाओं से मुक्ति है जो केवल शिक्षा के द्वारा ही संभव है।
वर्तमान में शिक्षा का स्वरूप कुछ विकृत हो गया है इसमें अनेक त्रुटियां आ गई हैं- जैसे गुरु शिष्य संबंध लेन-देन का संबंध बन कर रह गया है। शिक्षा का व्यापारिकरण हो रहा है यही कारण है कि ना तो शिक्षक को शिष्य से लगाव है और ना ही शिष्य के मन में गुरु के प्रति आदर है। दोनों व्यावसायिक दृष्टि से एक दूसरे को देखते हैं ऐसी स्थिति में शिक्षा के उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सकते। बालक की प्रथम पाठशाला घर है उस घर से प्राप्त होने वाली शिक्षा में भी विकार आ गए हैं। माता-पिता अपने कर्तव्य को भूल रहे हैं। वे स्वयं आदर्श व्यवहार द्वारा अपनी संतान के समक्ष एक उत्कृष्ट उदाहरण नहीं बन पा रहे हैं किंतु संतान से आदर्श संतान होने की अपेक्षा रखते हैं- उदाहरण: माता-पिता मोबाइल पर अपने बच्चों के सामने झूठ बोलते हैं। ऐसा करते समय भी भूल जाते हैं कि उनकी संतान उन्हें ही देख रही है और उन्हीं से सीख रही है। अपने व्यवहार और आचरण के द्वारा जो कुछ भी सिखा रहे हैं वह उन्हें संतान के व्यवहार और आचरण के रूप में दिखाई देने लग गई है। जब तक वह इस प्रक्रिया को समझ पाते है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। अतः आवश्यक है कि प्रथम पाठशाला में सुधार हो तभी हम द्वितीय औपचारिक पाठशाला शिक्षा में सुधार ला सकेंगे। कुछ कमियां हमारी शिक्षा नीति में भी रही है जिन्हें धीरे धीरे सुधारा जा रहा है। प्रारंभ में मैकाले की पद्धति ने हमारे मन में यह अच्छी तरह बैठा दिया था कि शिक्षा सरकारी नौकरी पाने का एक साधन है। वह व्यक्ति को पूर्णत्व प्रदान करने का साधन नहीं है। धीरे धीरे हम उसमें सुधार करते गए किंतु उस मानसिकता को अभी भी छोङ नहीं पा रहे है।
आशा है नई शिक्षा नीति एवं सिखाने की पद्धति हमारी भावी पीढ़ी को उस मानसिकता से उबारकर स्वावलम्बन की ओर अग्रसर कर सके। जिससे हमारा देश आत्मनिर्भर व विकसित बन सके। इसके लिए शिक्षकों का पूर्ण रूप से प्रशिक्षित होना व शिक्षालयो में शिक्षा का उचित वातावरण बनाना आवश्यक है। खेल-खेल में सीखने व रूचि अनुरूप प्रशिक्षण प्राप्त करने की पूर्ण सुविधाओं के साथ कुशल अध्यापकों की भी आवश्यकता है जो विद्यार्थियों की मानसिकता व अन्य क्षमताओं के अनुरूप उसे प्रशिक्षित कर एक श्रेष्ठ इंसान, सुनागरिक व स्वावलंबी व्यक्ति बना सके।