संजय आचार्य वरुण
कितना सुखद है कि हम अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं के प्रति इस विषम दौर में भी संवेदनशील हैं। जीवन जिस दौर में सिर्फ अर्थ और पद के उद्देश्यों के इर्द-गिर्द घूम रहा है, व्यक्तिगत ऐष्णाएं व्यक्ति को उसके सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक धरातल से काट रही है, ऐसे में एक शहर के युवा महानगरीय महत्वाकांक्षाओं से विमुख रहते हुए कलाओं को महत्वपूर्ण मान रहे हैं और पूरे हर्षोल्लास से बीकानेर में थिएटर फेस्टिवल आज से नहीं बल्कि कई वर्षों से मना रहे हैं। महसूस हो रहा है कि मानवीय जीवन में स्पंदन अभी मौजूद है। अक्सर ऐसे आयोजन सरकारी योजनाओं के अन्तर्गत औपचारिकताओं के रूप में ही सम्पन्न हुआ करते हैं, लेकिन भाग्यशाली है बीकानेर कि यहां के लोग कला परम्पराओं को अपनी व्यक्तिगत आवश्यकता और दायित्वों की सूची में सम्मिलित रखते हुए राजकीय अकादमिक अनुदानों की प्रतीक्षा के बगैर ऐसे कलानुष्ठानों के आयोजन करते हैं।
कलाएं, मानवीय जीवन को वास्तविक अर्थों में सामाजिक और प्राणवान बनाती हैं, इसलिए कलाओं को पोषित करने का हर अवसर उत्सव ही होता है। ऐसे उत्सवों पर उन पुरोधाओं को याद करना भी जरूरी होता है जो एक कालखंड से दूसरे कालखंड तक कला के वाहक और योजक बने। बीकानेर थिएटर फेस्टिवल के सन्दर्भ में यह कहा जाना चाहिए कि ये एक उत्कृष्ट, सुसंयोजित और सुव्यवस्थित होने के कारण एक सराहनीय आयोजन है। बेहतर से बेहतरीन होने की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। इस आयोजन में भी कुछ जोड़ा और कुछ घटाया जा सकता है। रंगकर्म से इतर की कुछ गतिविधियों के स्थान पर दिवंगत रंगकर्मियों के व्यक्तित्व और कृतित्व से संबंधित प्रदर्शनियां अधिक प्रासंगिक हो सकती हैं। इसी तरह बीकानेर रंग जगत के जितने पुराने फोटोग्राफ्स मिल सकें, उनकी प्रदर्शनी से नए कलाकारों को उस गरिमामय परम्परा का ज्ञान होता, जिसका वे हिस्सा बने हैं। संवाद के कार्यक्रमों में बुजुर्ग रंगकर्मियों के विराट अनुभवों को वर्तमान में सक्रिय रंगकर्मियों तक पहुंचना भी भविष्य के लिए श्रेयस्कर हो सकता है।
आज की बुनियाद बीते हुए कल पर ही टिकी होती है। हमारा सौभाग्य है कि वरिष्ठ नाटककार लक्ष्मीनारायण रंगा, एस डी चौहान, इकबाल हुसैन, कैलाश भारद्वाज, ओम सोनी, प्रदीप भटनागर, लक्ष्मीनारायण सोनी, पुंडरीक जोशी जैसे अनेक समर्पित रंगरत्नों का सानिध्य हमें प्राप्त है, इन सबके अनुभवों का लाभ लेने से फेस्टिवल की सार्थकता में अभिवृद्धि ही होगी। फेस्टिवल की श्रेष्ठता और कार्यकर्ताओं का परिश्रम और समर्पण देखकर उनसे अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। रंगकर्म के प्रति युवा रंगकर्मियों का जज्बा देखकर स्व. डॉ.राजानंद, स्व. एन. डी. प्रकाश, स्व. पी. सुन्दर, जनकवि हरीश भादानी, स्व. पी. सी. गुप्ता, स्व. डॉ. मुरारी शर्मा, आनंद वि.आचार्य सहित पुरानी पीढ़ी के रंगकर्म को जीने वाले अनेक नाम याद आने लगते हैं। अभी हाल ही में दिवंगत हुए महेन्द्र शर्मा केशव शाकद्वीपीय और आईया महाराज भी रंगकर्म को स्व योगदान देने वालों में अग्रणी थे। ये कुछ नाम तो महज उदाहरण के रूप में हैं, ऐसे सभी लोग, जिन्होंने बीकानेर के रंगकर्म की बगिया को सींचा था, उनका किसी न किसी रूप में स्मरण थिएटर फेस्टिवल को सुन्दर से सुन्दरतम बना देगा। लोग बहुत थे, और आज भी बहुत हैं, एक दो बड़े नामों के प्रभाव से मुक्त होकर सबको जोड़ा जाना चाहिए। बीकानेर को इस शानदार आयोजन के लिए बधाई।